Monday, November 18, 2019

अर्जुन के रोम-रोम से से श्रीकृष्ण की मधुर ध्वनि निकलना

श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण

एक बार भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा–’देव ! आज किसी भक्त श्रेष्ठ का दर्शन कराने की कृपा करें।’ भगवान शंकर तत्काल उठ खड़े हुए और कहा–’जीवन के वही क्षण सार्थक हैं जो भगवान के भक्तों के सांनिध्य में व्यतीत हों।’ भगवान शंकर पार्वतीजी को वृषभ पर बैठाकर चल दिए। पार्वतीजी ने पूछा–’हम कहां चल रहे हैं?’ शंकरजी ने कहा–’हस्तिनापुर चलेंगे। जिनके रथ का सारथि बनना श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया, उन महाभाग अर्जुन के अतिरिक्त श्रेष्ठ भक्त पृथ्वी पर और कौन हो सकता है।’ किन्तु हस्तिनापुर में अर्जुन के भवन के द्वार पर पहुँचने पर पता लगा कि अर्जुन सो रहे हैं। पार्वतीजी को भक्त का दर्शन करने की जल्दी थी पर शंकरजी अर्जुन की निद्रा में विघ्न डालना नहीं चाहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तत्काल ही श्रीकृष्ण, उद्धवजी, रुक्मिणीजी और सत्यभामाजी के साथ पधारे और शंकर-पार्वतीजी को प्रणाम कर आने का कारण पूछा।

शंकरजी ने कहा–’आप भीतर जाकर अपने सखा को जगा दें, क्योंकि पार्वतीजी अर्जुन के दर्शन करना चाहती हैं।’ ‘जैसी आज्ञा’ कहकर श्रीकृष्ण अंदर चले गए। बहुत देर हो गयी पर अंदर से कोई संदेश नहीं आया तब शंकरजी ने ब्रह्माजी का स्मरण किया। ब्रह्माजी के आने पर शंकरजी ने उन्हें अर्जुन के कक्ष में भेजा। पर ब्रह्माजी के अंदर जाने पर भी बहुत देर तक कोई संदेश नहीं आया। शंकरजी ने नारदजी का स्मरण किया। शंकरजी की आज्ञा से नारदजी अंदर गए। किन्तु संदेश तो दूर, कक्ष से वीणा की झंकार सुनाई देने लगी। पार्वतीजी से रहा नहीं गया। वे बोलीं–’यहां तो जो आता है, वहीं का हो जाता है। पता नहीं वहां क्या हो रहा है? आइये, अब हम स्वयं चलते हैं।’ भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ अर्जुन के कक्ष में पहुँचे।

उधर श्रीकृष्ण जब अर्जुन के कक्ष में पहुँचे तब अर्जुन सो रहे थे और उनके सिरहाने बैठी सुभद्राजी उन्हें पंखा झल रही थीं। अपने भाई (श्रीकृष्ण) को आया देखकर वे खड़ी हो गईं और सत्यभामाजी पंखा झलने लगीं। उद्धवजी भी पंखा झलने लगे। रुक्मिणीजी अर्जुन के पैर दबाने लगीं। तभी उद्धवजी व सत्यभामाजी चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे। श्रीकृष्ण ने पूछा–’क्या बात है?’ तब उद्धवजी ने उत्तर दिया–’धन्य हैं ये कुन्तीनन्दन ! निद्रा में भी इनके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है।’ तभी रुक्मिणीजी बोलीं–’वह तो इनके चरणों से भी निकल रही है।’

अर्जुन के शरीर से निकलती अपने नाम की ध्वनि जब श्रीकृष्ण के कान में पड़ी तो प्रेमविह्वल होकर भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के चरण दबाने बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण के नवनीत से भी सुकुमार हाथों के स्पर्श से अर्जुन की निद्रा और भी प्रगाढ़ हो गयी।

उसी समय ब्रह्माजी ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य, कि भक्त सो रहा है और उसके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण’ की मधुर ध्वनि निकल रही है और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणीजी के साथ उसके चरण दबा रहे हैं, ब्रह्माजी भावविह्वल हो गए और अपने चारों मुखों से वेद की स्तुति करने लगे। इसे देखकर देवर्षि नारद भी वीणा बजाकर संकीर्तन करने लगे। भगवान शंकर व माता पार्वती भी इस अलौकिक दिव्य-प्रेम को देखकर प्रेम के अपार सिन्धु में निमग्न हो गए। शंकरजी का डमरू भी डिमडिम निनाद करने लगा और वे नृत्य करने लगे। पार्वतीजी भी स्वर मिलाकर हरिगुणगान करने लगीं।

इस तरह सच्चे भक्त के अलौकिक दिव्य-प्रेम ने भगवान को भी भावविह्वल कर दिया।

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