Friday, November 22, 2019

मलूकदास और डकैत







मलूकदास नाम के एक सेठ थे। उनका जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक ग्राम में वैशाख वदी पंचमी, संवत् 1631 को लाला सुन्दर दास खत्री कक्कड़ के घर हुआ था। पूर्व के पुण्य से वे बाल्यावस्था में तो अच्छे रास्ते चले और भक्ति भाव का आश्रय लिया लेकिन जवानी में जरा भटक गये।


उनके बँगले के नजदीक ही एक मंदिर था। एक रात्रि को पुजारी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी। सुबह उन्होंने पुजारी को खूब डाँटा कि ‘‘यह सब क्या?’’

पुजारी बोले : ‘‘एकादशी का जागरण-कीर्तन चल रहा था।’’

‘‘अरे! क्या जागरण-कीर्तन करते हो? हमारी नींद हराम कर दी। अच्छी नींद के बाद व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है, फिर कमाता है तब खाता है।’’

पुजारी ने कहा : सेठजी! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।’’

‘‘कौन खिलाता है? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा?’’
‘‘वही तो खिलाता है।’’
‘‘क्या भगवान खिलाता है? हम कमाते हैं तब खाते हैं।’’

‘‘निमित्त होता है तुम्हारा कमाना और पत्नी का रोटी बनाना। बाकी सबको खिलानेवाला, सब का पालनहार तो वह जगन्नियंता ही है।’’

‘‘क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है?
बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो। क्या तुम्हारा पालने वाला एक-एक को आकर खिलाता है? आखिर हम कमाते है तभी खाते है’’

‘‘सभी को वही खिलाता है।’’
‘‘हम नहीं खाते उसका दिया।’’
‘‘पुजारी! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटो में नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा, नहीं तो मैं तुम्हारा सिर उड़ा दूँगा।’’

‘‘सेठजी! मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बहुत पहुँच है लेकिन उसके हाथ लंबे है। जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता।’’

ठीक है, आजमाकर देख लेना।’’
पुजारी कोर्इ सात्त्विक, भगवान में प्रीतिवाले भक्त रहे होंगे।


मलूकदास किसी घोर जंगल में चले गये और विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर चढ़ कर बैठ गये कि ‘अब देखें इधर कौन खिलाने आता है? चौबीस घंटे बीत जायेंगे और पुजारी की हार हो जायेगी। सदा के लिए कीर्तिन की झंझट मिट जायेगी।’

दो-तीन घंटे के बाद अजनबी आदमी वहाँ आया। उसने वृक्ष के नीचे आराम किया। फिर अपना सामान उठाकर चल दिया लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया।
भूल गया कहो, छोड़ गया कहो। भगवान ने किसी मनुष्य को प्रेरणा की थी अथवा मनुष्य रूप में साक्षात् भगवत्सत्ता ही वहाँ आयी थी, यह तो भगवान ही जानें।

थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ से पसार हुए। उनमें से एक ने अपने सरदार से कहा : उस्ताद! यहाँ कोर्इ थैला पड़ा है।’’

‘‘क्या है? जरा देखो।’’
खोलकर देखा तो उसमें गरमागरम भोजन से भरा टिफिन!
‘‘उस्ताद! भूख लगी है, लगता है यह भोजन भगवान ने ही भेजा है।’’
‘‘अरे! तेरा भगवान यहाँ कैसे भोजन भेजेगा? हमको पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा अथवा पुलिस का कोर्इ “षड्यंत्र होगा। इधर-उधर देखो जरा कौन रखकर गया है?’’

मलूकदास सेठ ऊपर बैठे-बैठे सोचने लगे कि ‘अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ेंगे।’
वे तो चुप रहे लेकिन हृदय की धड़कने चलाता है, भक्त-वत्सल है वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शांत कैसे रहता? उसने उन डकैतों को प्रेरित किया कि ‘ऊपर भी देखो।’ उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा।

डकैत चिल्लाये : अरे! नीचे उतर।’’
‘‘मैं नहीं उतरता।’’
‘‘क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा।’’
‘‘मैंने नहीं रखा। कोर्इ यात्री अभी आया था, वही इसे भूलकर चला गया।’’
‘‘नीचे उतर । तुने ही रखा होगा जहर-वहर मिलाकर और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है, तुझे ही यह भोजन खाना पडे़गा।’’

अब कौन-सा काम वह सर्वेश्वर किसके द्वारा किस निमित्त से करवाये अथवा उसके लिए क्या रूप ले यह उसकी मर्जी की बात है । बड़ी गजब की व्यवस्था है उस परमेश्वर की!

मलूकचंद बोले : ‘‘मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतर्इ नहीं खाऊँगा।’’
‘‘पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है। अरे! नीचे उतर, अब तो तुझे खाना ही होगा।’’

‘‘मैं नहीं खाऊँगा, नीचे भी नहीं उतरूँगा।’’
‘‘ अरे! कैसे नहीं उतरेगा?’’
डकैतों के सरदार ने अपने एक आदमी को हुक्म दिया : ‘‘इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।’’ डकैत ने मलूकदास को पकड़कर नीचे उतारा।

‘‘ले, खाना खा।’’
‘‘मैं नहीं खाऊँगा।’’

उस्ताद ने धड़ाक- से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया। मलूकचंद को पुजारी की बात याद आयी कि ‘ नहीं खाओगे तो मारकर भी खिलायेगा…’

मूलकचंद बोले : ‘‘मैं नहीं खाऊँगा।’’

‘‘अरे! कैसे नहीं खायेगा? इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो।’’

वहाँ कोर्इ लकड़ी की डंडी पड़ी थी। डकैतों ने उससे उसका मुँह खोला और जबरदस्ती एक कौर ठूँस दिया । वे नहीं खा रहे थे तो डकैत उन्हें पीटने लगे।

अब मलूकचंद ने सोचा कि ‘ये पाँच है और मैं अकेला हूँ। नहीं खाऊँगा तो ये मेर हड्डी- पसली एक कर देंगे।’ इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन-ही मन कहा ‘मान गये मेरे बाप! मारकर भी खिलाता है। डकैतों के रूप में खिला, चाहे भक्तों के रूप में खिला लेकिन खिलानेवाला तो तू ही है। अपने पुजारी की बात तूने सत्य साबित कर दिखायी।’

मूलकदास के बचपन की भक्ति की धारा फूट पड़ी ।उनको मार-पीटकर डकैत वहाँ से चले गये तो मलूकदास भागे और पुजारी के पास आकर बोले : ‘‘पुजारी जी ! मान गये आपकी बात कि नहीं खायें तो वह मारकर भी खिलाता है।’’

पुजारी बोले : ‘‘वैसे तो तीन दिन तक कोर्इ खाना न खाये तो वह जरूर किसी-न-किसी रूप मे आकर खिलाता है लेकिन मैंने प्रार्थना की थी कि ‘तीन दिन की नहीं एक दिन की शर्त रखी है, तू कृपा करना।’ अगर कोर्इ सच्ची श्रद्धा और विश्वास से हृदयपूर्वक प्रार्थना करता है तो वह अवश्य सुनता है। वह तो सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ है। उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं हैं।’’

                                       कर्तु शक्या अकर्तुं शक्यं कर्तु शक्यम्।

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