कलियुग में नाम संकीर्तन के अलावा जीव के उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है|
विष्णुधर्मोत्तर में लिखा है कि श्रीहरि के नाम-संकीर्तन में देश-काल का नियम लागू नहीं होता है। किसी भी प्रकार की अशुद्ध अवस्था में भी नाम-जप को करने का निषेध नहीं है। श्रीमद्भागवत महापुराणका तो यहां तक कहना है कि जप-तप एवं पूजा-पाठ की त्रुटियां अथवा कमियां श्रीहरिके नाम- संकीर्तन से ठीक और परिपूर्ण हो जाती हैं। हरि-नाम का संकीर्त्तन ऊंची आवाज में करना चाहिए |
जपतो हरिनामानिस्थानेशतगुणाधिक:।
आत्मानञ्चपुनात्युच्चैर्जपन्श्रोतृन्पुनातपच॥
अर्थात : हरि-नाम को जपने वाले की अपेक्षा उच्च स्वर से हरि-नाम का कीर्तन करने वाला अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि जपकर्ता केवल स्वयं को ही पवित्र करता है, जबकि नाम- कीर्तनकारी स्वयं के साथ-साथ सुनने वालों का भी उद्धार करता है।
गोविन्द माधव मुकुन्द हरे मुरारे,
शम्भो शिवेश शशिशेखर शूलपाणे।
दामोदराच्युत जनार्दन वासुदेव,
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति।।
स्कन्दपुराण में यमराज नाममहिमाके विषय में कहते हैं–’जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव–इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतो ! तुम दूर से ही त्याग देना।’
यदि जगत् का मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?
बृहन्नार्दीय पुराण में आता है–
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा||
कलियुग में केवल हरिनाम, हरिनाम और हरिनाम से ही उद्धार हो सकता है| हरिनाम के अलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है! नहीं है! नहीं है!
कृष्ण तथा कृष्ण नाम अभिन्न हैं: कलियुग में तो स्वयं कृष्ण ही हरिनाम के रूप में अवतार लेते हैं| केवल हरिनाम से ही सारे जगत का उद्धार संभव है–
कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार |
नाम हइते सर्व जगत निस्तार|| – चै॰ च॰ १.१७.२२
पद्मपुराण में कहा गया है–
नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:|
पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोसभिन्नत्वं नाम नामिनो:||
हरिनाम उस चिंतामणि के समान है जो समस्त कामनाओं को पूर्ण सकता है| हरिनाम स्वयं रसस्वरूप कृष्ण ही हैं तथा चिन्मयत्त्व दिव्यता के आगार हैं |
हरिनाम पूर्ण हैं, शुद्ध हैं, नित्यमुक्त हैं|हरि तथा हरिनाम में कोई अंतर नहीं है| जो कृष्ण हैं– वही कृष्ण नाम है| जो कृष्ण नाम है– वही कृष्ण हैं|
यजुर्वेद के कलि संतारण उपनिषद् में आता है–
द्वापर युग के अंत में जब देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी से कलियुग में कलि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय पूछा, तब सृष्टिकर्ता ने कहा- आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण से मनुष्य कलियुग के दोषों को नष्ट कर सकता है।
इति षोडषकं नाम्नाम् कलि कल्मष नाशनं |
नात: परतरोपाय: सर्व वेदेषु दृश्यते ||
अर्थात : सोलह नामों वाले महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में क्लेश का नाश करने में सक्षम है| इस मन्त्र को छोड़ कर कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय चारों वेदों में कहीं भी नहीं है |
भगवन्नाम
भगवान का नाम उन परमात्मा का वाचक है जो अखिल ब्रह्माण्ड के नायक, परिचालक, उत्पादक और संहारक हैं। ‘भगवान’ शब्द समस्त ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य का संकेत करता है। अत: भगवान में अनन्त ब्रह्माण्डों के अनन्त जीवों का ज्ञान, उनके अनन्तानन्त कर्मों का ज्ञान, अनन्तानन्त कर्मों के फलों का ज्ञान और उन कर्मफलों को देने की सामर्थ्य है। वे भगवान एक ही हैं; किन्तु उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, प्रजापति, इन्द्र, वरुण, अग्नि, राम, कृष्ण, गोविन्द, वासुदेव, नारायण आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। नाम-संकीर्तन उस परमपिता के प्रति अभिवादन है, उसके अमित उपकारों की स्वीकारोक्ति है और उसके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन है। यह दीनता का प्रदर्शन है, गरीब की गुहार है और शरणागतभाव की अभिव्यक्ति है। यह समय का सदुपयोग है जिसमें भक्त स्वयं को समर्पण कर अपने अहंकार को नकारता है। भगवन्नाम शब्द में विलक्षण शक्ति है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह भगवन्नाम उच्चारण करने पर तीक्ष्ण तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ वह सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य भगवत्कृपा का भाजन बनता है और उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
भगवान के नामोच्चारण की महिमा
भगवान के नाम की विलक्षण महिमा है। इस भगवन्नाम से जल में डूबता हुआ गजराज समस्त शोक से छूट गया, द्रौपदी का वस्त्र अनन्त हो गया, नरसीमेहता के सम्पूर्ण कार्य बिना किसी उद्योग के सिद्ध हो गए, नाम के स्पर्श से सेतुबंधन के समय पत्थर भी तैर गए, मीरा के लिए विष भी अमृत समान हो गया, अवढरदानी शिवजी भी नाम के प्रताप से भयानक विषपान कर गए और नीलकण्ठ बन गए और संसार को भस्मीभूत होने से बचा लिया, व्याध भी ‘राम’ का उल्टा ‘मरा’ जपकर वाल्मीकि बन गए, भक्त प्रह्लाद भी हिरण्यकशिपु द्वारा दी गई समस्त विपत्तियों से छूट गए और धधकती हुई ज्वाला भी उन्हें भस्म नहीं कर सकी, बालक ध्रुव को अविचल पदवी प्राप्त हुई, नामजप के प्रभाव से ही हनुमानजी ने श्रीराम को अपना ऋणी बना लिया, अंतकाल में पुत्र का नाम नारायण लेने से अजामिल को भगवत्-पद की प्राप्ति हुई, नाम के प्रभाव से ही असंख्य साधकों को चमत्कारमयी सिद्धियां प्राप्त हुईं–ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो भगवान के नाम की महिमा को दर्शाते हैं।
नामोच्चार संसार के रोगों के निवारण की महान औषधि है। जैसे जलती हुई अग्नि को शान्त करने में जल सर्वोपरि साधन है, घोर अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य ही समर्थ है, वैसे दम्भ, कपट, मद, मत्सर आदि अनन्त दोषों को नष्ट करने के लिए श्रीभगवन्नाम ही सर्वसमर्थ है। बारम्बार नामोच्चारण करने से जिह्वा पवित्र हो जाती है। मन को अत्यन्त प्रसन्नता होती है। समस्त इन्द्रियों को सच्चिदानंदमय परम सुख प्राप्त होता है। समस्त शोक-संताप नष्ट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार–’भगवान का नाम प्रेम से, बिना प्रेम से, किसी संकेत के रूप में, हंसी-मजाक करते हुए, किसी डांट-फटकार लगाने में अथवा अपमान के रूप में भी ग्रहण करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।’
रामचरितमानस में कहा गया है–’भाव कुभाव अनख आलसहुँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहुँ।।’ भगवान का नाम लेकर जो जम्हाई भी लेता है उसके समस्त पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। यथा–’राम राम कहि जै जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।’
भगवन्नाम से तो बड़े-बड़े अमंगल ही क्या, भाग्य में लिखे हुए अनिष्टकारी योग भी मिट जाते हैं। तीर्थ में वास, लक्ष-लक्ष गोदान अथवा कोटि जन्म के सुकृत–कुछ भी भगवन्नाम के तुल्य नहीं है। नाम की सामर्थ्य असीम है, अचिन्तनीय है।
भक्त नामदेव का कहना है कि–’सोने के पर्वत, हाथी और घोड़े का दान तथा करोड़ों गायों का दान नाम के समान नहीं। ऐसा नाम अपनी जीभ पर रखो, जिससे जरा और मृत्यु पुन: न हो।’
प्रश्न यह उठता है कि नाम में इतनी शक्ति आयी कहां से?
भगवान मनुष्यों पर अनुग्रह करने के लिए युग-युग में अवतार लेते हैं। अपने परिकरों के साथ आते हैं और कार्य हो जाने पर अपने गणों के साथ नित्यधाम को लौट जाते हैं। दु:खी जीवों के लिए वे छोड़ जाते हैं अपना अभय और अमृतप्रद नाम-चिन्तामणि। केवल यही नहीं, नाम के भीतर वे अपनी भारी शक्ति का आधान कर जाते हैं। नाम की शक्ति तो थी ही, प्रभु की शक्ति को पाकर नाम नामी (भगवान) की अपेक्षा महान बन जाता है। श्रीरामचन्द्रजी ने एक पाषाणमयी अहल्या का उद्धार किया था पर नाम युग-युग में शत-शत अहल्याओं का उद्धार करता है। अब इतनी अहल्या हैं कहां? तो इसका उत्तर है–’हल्या’ का अर्थ है कृषियोग्य; अहल्या का अर्थ है कृषि के अयोग्य अर्थात् पाषाण। सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य का हृदय पाषाण होता जा रहा है। भगवान तो प्रकट हैं नहीं जो उनका उद्धार करें। परन्तु उनका नाम तो है ही। भगवान तो उद्धार करके चले गए, नाम इस समय महान उद्धारलीला करके (अनेकों पाषाणहृदयों को द्रवित करके) शत-शत जीवों का उद्धार कर रहा है।
भगवान श्रीकृष्ण के नाम की महिमा से सम्बन्धित कुछ सुन्दर प्रसंग
प्राचीन कथाओं पर विश्वास करना यद्यपि कठिन होता है परन्तु भक्ति हृदय से (श्रद्धा और विश्वास से) की जाती है, तर्क से नहीं। प्रस्तुत हैं भगवन्नाम की महिमा से सम्बन्धित कुछ प्रसंग–
एक बार भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा–’देव ! आज किसी भक्त श्रेष्ठ का दर्शन कराने की कृपा करें।’ भगवान शंकर तत्काल उठ खड़े हुए और कहा–’जीवन के वही क्षण सार्थक हैं जो भगवान के भक्तों के सांनिध्य में व्यतीत हों।’ भगवान शंकर पार्वतीजी को वृषभ पर बैठाकर चल दिए। पार्वतीजी ने पूछा–’हम कहां चल रहे हैं?’ शंकरजी ने कहा–’हस्तिनापुर चलेंगे। जिनके रथ का सारथि बनना श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया, उन महाभाग अर्जुन के अतिरिक्त श्रेष्ठ भक्त पृथ्वी पर और कौन हो सकता है।’ किन्तु हस्तिनापुर में अर्जुन के भवन के द्वार पर पहुँचने पर पता लगा कि अर्जुन सो रहे हैं। पार्वतीजी को भक्त का दर्शन करने की जल्दी थी पर शंकरजी अर्जुन की निद्रा में विघ्न डालना नहीं चाहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तत्काल ही श्रीकृष्ण, उद्धवजी, रुक्मिणीजी और सत्यभामाजी के साथ पधारे और शंकर-पार्वतीजी को प्रणाम कर आने का कारण पूछा।
शंकरजी ने कहा–’आप भीतर जाकर अपने सखा को जगा दें, क्योंकि पार्वतीजी अर्जुन के दर्शन करना चाहती हैं।’ ‘जैसी आज्ञा’ कहकर श्रीकृष्ण अंदर चले गए। बहुत देर हो गयी पर अंदर से कोई संदेश नहीं आया तब शंकरजी ने ब्रह्माजी का स्मरण किया। ब्रह्माजी के आने पर शंकरजी ने उन्हें अर्जुन के कक्ष में भेजा। पर ब्रह्माजी के अंदर जाने पर भी बहुत देर तक कोई संदेश नहीं आया। शंकरजी ने नारदजी का स्मरण किया। शंकरजी की आज्ञा से नारदजी अंदर गए। किन्तु संदेश तो दूर, कक्ष से वीणा की झंकार सुनाई देने लगी। पार्वतीजी से रहा नहीं गया। वे बोलीं–’यहां तो जो आता है, वहीं का हो जाता है। पता नहीं वहां क्या हो रहा है? आइये, अब हम स्वयं चलते हैं।’ भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ अर्जुन के कक्ष में पहुँचे।
उधर श्रीकृष्ण जब अर्जुन के कक्ष में पहुँचे तब अर्जुन सो रहे थे और उनके सिरहाने बैठी सुभद्राजी उन्हें पंखा झल रही थीं। अपने भाई (श्रीकृष्ण) को आया देखकर वे खड़ी हो गईं और सत्यभामाजी पंखा झलने लगीं। उद्धवजी भी पंखा झलने लगे। रुक्मिणीजी अर्जुन के पैर दबाने लगीं। तभी उद्धवजी व सत्यभामाजी चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे। श्रीकृष्ण ने पूछा–’क्या बात है?’ तब उद्धवजी ने उत्तर दिया–’धन्य हैं ये कुन्तीनन्दन ! निद्रा में भी इनके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है।’ तभी रुक्मिणीजी बोलीं–’वह तो इनके चरणों से भी निकल रही है।’
अर्जुन के शरीर से निकलती अपने नाम की ध्वनि जब श्रीकृष्ण के कान में पड़ी तो प्रेमविह्वल होकर भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के चरण दबाने बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण के नवनीत से भी सुकुमार हाथों के स्पर्श से अर्जुन की निद्रा और भी प्रगाढ़ हो गयी।
उसी समय ब्रह्माजी ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य, कि भक्त सो रहा है और उसके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण’ की मधुर ध्वनि निकल रही है और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणीजी के साथ उसके चरण दबा रहे हैं, ब्रह्माजी भावविह्वल हो गए और अपने चारों मुखों से वेद की स्तुति करने लगे। इसे देखकर देवर्षि नारद भी वीणा बजाकर संकीर्तन करने लगे। भगवान शंकर व माता पार्वती भी इस अलौकिक दिव्य-प्रेम को देखकर प्रेम के अपार सिन्धु में निमग्न हो गए। शंकरजी का डमरू भी डिमडिम निनाद करने लगा और वे नृत्य करने लगे। पार्वतीजी भी स्वर मिलाकर हरिगुणगान करने लगीं।
इस तरह सच्चे भक्त के अलौकिक दिव्य-प्रेम ने भगवान को भी भावविह्वल कर दिया।
जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से कृष्ण नाम का उच्चारण होता है वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं। नाम और कृष्ण अभिन्न हैं।
कौरवों की सभा में जब द्रौपदी निरावरण हुई तब द्रौपदी ने बारम्बार ‘गोविन्द’ और ‘कृष्ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्तिकाल में अभय देने वाले भगवान श्रीकृष्ण का मन-ही-मन चिन्तन किया। वह बोली–
गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय।
कौरवै: परिभूतां मां किं न जानासि केशव।।
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन।।
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द कुरुमध्येऽवसीदतीम्।।
अर्थात्–’ हे गोविन्द ! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण ! हे गोपियों के प्राणबल्लभ ! हे केशव ! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, इस बात को क्या आप नहीं जानते? हे नाथ ! हे लक्ष्मीनाथ ! हे व्रजनाथ ! हे संकट-नाशन जनार्दन ! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ; मेरा उद्धार कीजिए ! हे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगिन् ! विश्वात्मन् ! विश्वभावन ! गोविन्द ! कौरवों के बीच कष्ट में पड़ी हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजिए।’
द्रौपदी की करुण प्रार्थना सुनकर कृपालु श्रीकृष्ण गद्गद् हो गए तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित होकर पैदल ही दौड़ चले। धर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने वहां पधारकर अव्यक्तरूप से द्रौपदी की साड़ी में प्रवेश किया और भांति-भांति की सुन्दर साड़ी से द्रौपदी को ढक दिया। इस तरह वस्त्र के रूप में भगवान वहां तुरंत आ पहुँचे।
भगवान के नाम की महिमा दर्शाने वाली एक और कथा जो कि बताती है कि भगवान्नाम के फलस्वरूप ही श्रीराधाजी का प्राकट्य हुआ–
ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड के छठे अध्याय में कात्यायनीदेवी द्वारा श्रीबृषभानु को वर देने की कथा है–
बृषभानु संतानहीन होने के कारण बड़ा दु:खी जीवन बिता रहे थे। तब उनकी पत्नी ने उनसे मां कात्यायनी देवी की आराधना करने के लिए कहा। श्रीबृषभानुजी के कठोर तपस्या करने पर वाग्देवी (सरस्वतीजी) ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें आदेश दिया–
हरिनाम विना वत्स वर्णशुद्धिर्न जायते।
‘वत्स ! हरिनाम के बिना व्रण-शुद्धि नहीं होगी। अतएव राजन् ! हरिनाम का कीर्तन ही कल्याणकारी है। तुम पवित्र हरिनामों को ही क्रम से ग्रहण करो।’
उन्हीं के निर्देश से क्रतुमुनि के द्वारा बृषभानु को हरिनाम प्राप्त हुआ। वह नाम इस प्रकार था–
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीबृषभानुजी की तपस्या और इस नाम-जप से प्रसन्न होकर कात्यायनी देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं और उन्होंने श्रीबृषभानुजी से वर मांगने के लिए कहा। यद्यपि श्रीबृषभानुजी ने संतान-प्राप्ति की कामना से साधना आरम्भ की थी तथापि वे कात्यायनी देवी से बोले–’आपके दर्शन से ही मेरे सारे अभीष्ट पूर्ण हो गए।’ पर कात्यायनी देवी ने उनके पूर्ण अभीष्ट और कामना की पूर्ति के लिए उनको एक ज्योतिर्मय डिम्ब दिया। उसी से श्रीराधा का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार ‘नाम’ के फलस्वरूप श्रीबृषभानुजी ने संतान प्राप्त की।
पावन ब्रजभूमि में आज भी चारों और ढोलक, मंजीरों की गूंज पर नाम-संकीर्तन की स्वरलहरी सुनाई देती है। इसी स्वरलहरी के सांनिध्य और स्पर्श से वृन्दावन के वृक्षों और लताओं में आज भी ‘राधेकृष्ण’ की ध्वनि होती रहती है। भक्त शिरोमणि तुलसीदासजी ने अपने ब्रजप्रवास मे इसकी अनुभूति करते हुए कहा था–
बृन्दावन के वृक्ष को, मर्म न जाने कोय।
डार-डार अरु पात-पात में राधे राधे होय।।
भगवान श्रीकृष्ण का नाम चिन्तामणि, कल्पवृक्ष है–सब अभिलाषित फलों को देने वाला है। यह स्वयं श्रीकृष्ण है, पूर्णतम है, नित्य है, शुद्ध है, सनातन है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने अपने ग्रंथ ‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ में कहा है–
सांसारिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार के लाभ देने में श्रीकृष्ण का नाम स्वयं श्रीकृष्ण के तुल्य है। नाम, विग्रह, स्वरूप–तीनों एक हैं; एक ही सत्ता की इन तीन दशाओं में कोई भेद नहीं है। तीनों चिदानन्दरूप हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के कुछ प्रचलित नाम व उनका भावार्थ
भगवान के नाम अनन्त हैं, उनकी गणना कर पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। यहां कुछ थोड़े से प्रचलित नामों का अर्थ दिया जा रहा है–
कृष्ण—’कृष्ण’ शब्द की महाभारत में व्याख्या विलक्षण है। भगवान ने इस सम्बन्ध में स्वयं कहा है–’मैं काले लोहे की बड़ी कील बनकर पृथ्वी का कर्षण करता हूँ और मेरा वर्ण भी कृष्ण है–काला है, इसीलिए मैं ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता हूँ।
परमात्मा– सृष्टि का जो मूल कारण है; जिसके संसर्ग के बिना प्रकृति में सृजन-क्रिया सम्भव नहीं, उस सर्वव्यापक चित् तत्त्व को परमात्मा कहते हैं।
हरि– इस प्रसिद्ध नाम की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है–(१) जो यज्ञ में हवि के भाग को ग्रहण करते हैं वे प्रभु यज्ञभोक्ता होने से हरि कहलाए। (२) हरिन्मणि (नीलमणि) के समान उनका रूप अत्यन्त सुन्दर एवं रमणीय है।
अच्युत– जिनके स्वरूप, शक्ति, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, ज्ञानादि का कभी किसी काल में, किसी भी कारण से ह्रास नहीं होता, वे भगवान अच्युत कहे जाते हैं।
भगवान– ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य–भगवान इन छहों ऐश्वर्यों से पूर्णतया युक्त हैं।
माधव– मायापति अथवा लक्ष्मीपति होने से भगवान का नाम माधव है।
गोविन्द– भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज धारण कर इन्द्र के कोप से गोप-गोपी और गायों की रक्षा की। अभिमान-भंग होने पर इन्द्र और कामधेनु ने उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से विभूषित किया। गौओं ने अपने दूध से भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक कर उन्हें गोविन्द–गौओं का इन्द्र बनाया।
गोपाल – गायों का पालन करने वाले।
हृषीकेश – हृषीक कहते हैं इन्द्रियों को। जो मन सहित समस्त इन्द्रियों का स्वामी है, वह हृषीकेश है।
पृश्निगर्भ – पृश्निगर्भ के अर्थ हैं–अन्न, वेद, जल तथा अमृत। इनमें भगवान निवास करते हैं; अत: पृश्निगर्भ कहलाते हैं।
वासुदेव – जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से समस्त जगत् को आच्छादित करता है, उसी प्रकार इस विश्व को आच्छादित करने के कारण भगवान ‘वासुदेव’ कहलाते हैं।
केशव – केशव कहलाने के तीन कारण हैं–(१) अत्यन्त सुन्दर केशों से सम्पन्न होने से ‘केशव’ हैं। (२) केशी के वध के कारण ‘केशव’ हैं। (३) ब्रह्मा, विष्णु और शिव जिसके वश में रहकर अपने कार्यों का सम्पादन करते हैं, वह परमात्मा है केशव।
ईश्वर – उत्पत्ति, पालन, प्रलय में सब प्रकार से समर्थ होने के कारण ईश्वर कहलाते हैं।
पद्मनाभ – जिसकी नाभि में जगतकारणरूप पद्म स्थित है, वे पद्मनाभ कहे जाते हैं।
पद्मनेत्र – कमल के समान नेत्र वाले।
जनार्दन – जो प्रलयकाल में सबका नाश कर देते हैं अथवा जो अवतार लेकर दुष्टजनों का दमन करते हैं और भक्तलोग जिनकी प्रार्थना करते हैं; वे जनार्दन कहे जाते हैं।
नारायण – ’नार’ कहते हैं–जल को, ज्ञान को और नर को। ज्ञान के द्वारा जिन्हें प्राप्त किया जाय, वे नारायण हैं। और नर के सखा हैं और जल में घर बनाकर (क्षीरसागर में) रहते हैं।
मुकुन्द – मुक्तिदाता होने से भगवान को मुकुन्द कहा जाता है
प्रभु – सर्वसमर्थ।
मधसूदन – प्रलय-समुद्र में मधु नामक दैत्य को मारने वाले।
मुरारी – मुर दैत्य के नाशक।
दयानिधि – दया के समुद्र।
कालकाल – काल के भी महाकाल।
नवनीतहर – माखन का हरण करने वाले।
बालवृन्दी – गोप-बालकों के समुदाय को साथ रखने वाले।
मर्कवृन्दी – वानरों के झुंड के साथ खेलने वाले।
यशोदातर्जित – यशोदा माता की डांट सहने वाले।
दामोदर – मैया द्वारा रस्सी से कमर में बांधे जाने वाले।
भक्तवत्सल – भक्तों से प्यार करने वाले।
श्रीधर – वक्ष:स्थल में लक्ष्मी को धारण करने वाले।
प्रजापति – सम्पूर्ण जीवों के पालक।
गोपीकरावलम्बी – गोपियों के हाथ को पकड़कर नाचने वाले।
बलानुयायी – बलरामजी का अनुकरण करने वाले।
श्रीदामप्रिय – श्रीदामा के प्रिय सखा।
अप्रमेयात्मा – जिसकी कोई माप नहीं ऐसे स्वरूप से युक्त।
गोपात्मा – गोपस्वरूप।
हेममाली – सुवर्णमालाधारी।
आजानुबाहु – घुटने तक लंबी भुजा वाले।
कोटिकन्दर्पलावण्य – करोड़ों कामदेवों के समान सौन्दर्यशाली।
क्रूर – दुष्टों को दण्ड देने के लिए कठोर।
व्रजानन्दी – अपने शुभागमन से सम्पूर्ण व्रज का आनन्द बढ़ाने वाले।
व्रजेश्वर – व्रज के स्वामी।
जीवन की जटिलताओं में फंसे, हारे-थके, आत्म-विस्मृत सम्पूर्ण प्राणियों के लिए आज के जीवन में भगवन्नाम ही एकमात्र तप है, एकमात्र साधन है, एकमात्र धर्म है। इस मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं है। इसके प्रत्येक श्वास का बड़ा मोल है। अत: उसका पूरा सदुपयोग करना चाहिए–
साँस-साँस पर कृष्ण भज, वृथा साँस मत खोय।
ना जाने या साँस को आवन होय, न होय।।
हरिवंशपुराण का कथन है-
वेदेरामायणेचैवपुराणेभारतेतथा।
आदावन्तेचमध्येचहरि: सर्वत्र गीयते॥
वेद , रामायण, महाभारत और पुराणों में आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र श्री हरि का ही गुण- गान किया गया है।