Monday, December 30, 2019
धन से जुड़े ऐसे ही अनमोल विचार
धन भले ही जीवन के सुख का आधार नहीं हो सकता है लेकिन तमाम तरह के सुख को पाने में इसकी बहुत जरूरत होती है। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी प्राथमिक जरूरतों को पूरा करने से लेकर तमाम तरह की सुख-सुविधाएं हासिल करने के लिए इंसान सुबह से शाम तक खून-पसीना बहाता है। लेकिन पैसा कमाने से पहले उससे जुड़ी इन बातों का जानना बहुत जरूरी है ...
चाणक्य
चाणक्य
गंदे वस्त्र धारण करने वाले, दांत न साफ करने वाले, पेटू व्यक्ति, कड़वे वचन वाले और ऊषा काल यानी सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के समय सोने वाले व्यक्ति के पास कभी लक्ष्मी नहीं ठहरतीं।
कबीर
उल्टी खोपड़ी वाला व्यक्ति धन को लेकर कभी संतुष्ट नहीं होता, वह हमेशा इसी फेर में लगा रहता है कि तीनों लोकों की संपत्ति कब उसके पास आ जायेगी।
विदुर
धन उत्तम कर्मों से उत्पन्न होता है, प्रगल्भता से बढ़ता है, चतुराई से फलता-फूलता है और संयम से सुरक्षित होता है।
वॉरेन बफेकिसी भी व्यक्ति का खर्च हमेशा उसकी कमाई से कम ही रहना चाहिए। इसके लिए फिजूलखर्ची पर लगाम लगानी होगी। उसे अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों में अंतर समझना हो
चार्ल्स ए. जैफ्फआपका वेतन आपको अमीर नहीं बनाता, आपकी खर्च करने की आदत बनाती है।
उल्टी खोपड़ी वाला व्यक्ति धन को लेकर कभी संतुष्ट नहीं होता, वह हमेशा इसी फेर में लगा रहता है कि तीनों लोकों की संपत्ति कब उसके पास आ जायेगी।
विदुर
धन उत्तम कर्मों से उत्पन्न होता है, प्रगल्भता से बढ़ता है, चतुराई से फलता-फूलता है और संयम से सुरक्षित होता है।
वॉरेन बफेकिसी भी व्यक्ति का खर्च हमेशा उसकी कमाई से कम ही रहना चाहिए। इसके लिए फिजूलखर्ची पर लगाम लगानी होगी। उसे अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों में अंतर समझना हो
चार्ल्स ए. जैफ्फआपका वेतन आपको अमीर नहीं बनाता, आपकी खर्च करने की आदत बनाती है।
Friday, December 13, 2019
शाह जहाँ को मलूकदास जी का श्राप देना
शाह जहाँ के शाशन काल में धर्मान्तरण की प्रक्रिया जोरों पर थी. एक दिन शाह जहाँ ने मंत्रियों को बुला कर पूछा. ये बताओ इतना बल और छल प्रयोग करने के बाद भी मुल्क का इस्लामीकरण क्यों नहीं हो पा रहा ? मंत्री बोले तुमसे ना हो पायेगा. जब तक हिन्दू साधु संत जमात के साथ विचरण करते रहेंगे, सत्संग करते रहेंगे तब तक ना हो पायेगा. सुनते ही शाह जहाँ ने फतवा जारी कर दिया. कहा जो भी साधू संत जमात के साथ घुमते मिल जाए . कैद कर के जेल में डाल दो. पूरे भारत में हजारों साधु संत बंदी बना लिए गए.
उसी समय मलूक दास जी महाराज प्रयाग के निकट कड़ा में विराजमान थे. वनखंडी नारायण दास जी महाराज उनके पास आये. मलूक दस जी से आग्रह किया हजारों निरपराध संत बंदी है और आप तपस्या में बैठे हैं. आप जैसे सिद्ध संत कृपा नहीं करेंगे तो कौन करेगा? मलूक दास जी ने संतो के उद्धार का निश्चय किया. फतवा की ऐसी तैसी करते हुए प्रयागराज से आप दक्षिण के श्री काकुलम पहुचे. वहां संतो को बंदीगृह से मुक्त करवाया. वहां के रजा को वैष्णवी दीक्षा दी.
फिर मलूक दास जी दिल्ली आये जैसे ही मलूक दस जी दिल्ली पहुचे पूरी जमात सहित आपको बंदी बना लिया गया. सबको काराग्रह में भेज दिया गया. आप समर्थ संत थे. जैसे ही आपको काराग्रह में भेजा गया सभी संतो की बेड़ियाँ अपने आप टूट गयीं काराग्रह के ताले खुल गए. आप पूरे संत समाज के साथ मथुरा में यमुना नदी के किनारे विराजमान हो गए.
जैसे ही आप दिल्ली की सीमा से बहार आये शाह जहाँ का पूरा शरीर जलने लगा. ऐसी तैसी हो गयी नवाब की. सारे हकीम वैद्य फेल हो गए. उसी समय मलूक दास जी के जाने की सूचना मिली. शाह जहाँ सब समझ गया. तब पूछते पूछते वो मलूक दस जी के पास पंहुचा.
जैसे ही शाह जहाँ मलूक दास जी के पास पंहुचा. रोने अलग माफ़ी मांगने लगा. बोला पूरा शरीर जला जा रहा है माफ़ कर दो. मलूक दास जी ने कहा तुमने संतो को बहुत कष्ट पहुचाया है. इसलिए तुम्हारा बेटा तुम्हे भी कारागार में डालेगा और वही तुम्हारी मृत्य होगी. शाह जहाँ ने कहा बस ये जलन ठीक करो. नहीं तो हम बेटे के जेल में डालने तक बचेंगे ही नहीं.
मलूक दस जी की शर्ते
मलूक दास जी ने शाह जहाँ के सामने कुछ शर्ते रखीं.
बलपूर्वक किसी का धर्मांतरण ना कराया जाए.
गौ हत्या तत्काल बंद हो.
साधू संतो के कहीं भी आने जाने पर किसी भी प्रकार की कोई भी पाबंदी ना हो.
मरता क्या ना करता शाह जहाँ ने सब मान लिया. मलूक दस जी ने कृपा की और उसकी पीड़ा का अंत हो गया.
शाह जहाँ ने मलूक दास जी को सम्मानित किया.
मलूक दास जी को फ़कीर-ऐ-शहंशाह का खिताब दिया. साथ में 500 गावों की जागीर दी. जिससे मलूक दास की परंपरा का खूब विस्तार हुआ. आज भी मलूक पीठ श्री धाम वृन्दावन में है.
समय बीता और मलूक दास जी की वाणी सत्य हुई. औरंगजेब ने शाह जहाँ को आगरा के किले में कैद कर दिया और वही उसकी मृत्यु हो गयी.
गुरु नानक देव जी और लालची आदमी
गुरु नानक देव जी अपने शिष्यों के साथ यात्रा किया करते थे. एक बार गांव के तरफ से गुजरते हुए उन्हें अचानक प्यास लगी. चलते-चलते उनको पहाड़ी पर एक कुआं दिखाई दिया. गुरु नानक ने शिष्य को पानी लेने के लिए भेजा. लेकिन कुएं का मालिक लालची और धनी था. वो पानी के बदले धन लिया करता था. शिष्य उस लालची आदमी के पास तीन बार पानी मांगने गया और तीनों बार उसे भगा दिया गया क्योंकि उसके पास धन नहीं था. भीषण गर्मी में गुरु नानक और शिष्य अभी तक प्यासे थे. गुरु जी ने कहा- 'ईश्वर हमारी मदद जरूर करेगा.'
इसके बाद नानक जी ने मिट्टी खोदना शुरू कर दिया. थोड़ा ही खोदा था और अचानक वहां से शुद्ध पानी आने लगा. जिसके बाद गुरु जी और शिष्यों ने पानी पीकर प्यास बुझाई. गांव वाले भी देखकर वहां पानी पीने पहुंच गए. यह देखकर कुएं के मालिक को गुस्सा आ गया. उसने कुएं की तरफ देखा तो वो हैरान रह गया. एक तरफ पानी की धारा बह रही थी तो दूसरी तरफ कुएं का पानी कम होता जा रहा था. फिर कुएं के मालिक ने गुरु जी को जोर से पत्थर मारा. लेकिन गुरु जी ने हाथ आगे किया और पत्थर हाथ से टकराकर वहीं रुक गया. ऐसा देख कुएं का मालिक उनके चरणों पर आकर गिर गया. गुरु जी ने समझाया- "किस बात का घमंड? तुम्हारा कुछ नहीं है. खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाओगे. कुछ करके जाओगे तो लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहोगे."
गुरु नानक जी के आशीर्वाद का रहस्य गुरु नानक देव जी अपने शिष्यों के साथ एक गांव पहुंचे. उस गांव के लोग बहुत ही बुरे थे. वो हर किसी के साथ दुर्व्यवहार किया करते थे. जैसे ही गुरु नानक पहुंचे तो गांव के लोगों ने उनके साथ बहुत दुर्व्यवहार किया और उनकी हंसी उड़ाने लगे. गुरु जी ने गांव वालों को दुर्व्यवहार ना करने के लिए समझाने की कोशिश की. लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ. गुरु जी वहां से निकलने लगे. गांव वालों ने कहा- महात्मन, हमने आपकी इतनी सेवा की. जाने से पहले कम से कम आशीर्वाद तो देते जाईये. उन्हें आशीर्वाद देते हुए गुरु जी ने कहा- 'एक साथ एक जगह पर रहो.'
कुएं बाद गुरुजी दूसरे गांव पहुंचे. उस गांव के लोग बहुत ही अच्छे थे. गांव के लोगों ने गुरु जी की खूब सेवा की और भरपूर अतिथि-सत्कार किया. जब गुरु जी के गांव छोड़ने का वक्त आया तो गांव वालों ने भी आशीर्वाद मांगा. उन्हें आशीर्वाद देते हुए गुरु जी ने कहा- "तुम सब उजड़ जाओ." इतना सुनकर उनके शिष्य हैरान रह गए. उन्होंने पूछा- "गुरु जी आज हम दो गावों में गए. दोनों जगह आपने अलग अलग आशीर्वाद दिए.लेकिन ये आशीर्वाद हमारे समझ में नहीं आए." जिसके बाद गुरु जी ने कहा- "एक बात हमेशा ध्यान रखो – सज्जन व्यक्ति जहां भी जाता है, वो अपने साथ सज्जनता और अच्छाई लेकर जाता है. वो जहां भी रहेगा, अपने चारों ओर प्रेम और सद्भाव का वातावरण बना कर रखेगा. अतः मैंने सज्जन लोगों से भरे गांव के लोगों को उजड़ जाने को कहा."
Monday, December 2, 2019
बजरंग बाण के लाभ
जय सिया राम
आज हम आपको बजरंग वान से होने वाले आठ लाभों के बारे में बतायेगे!!!!!!
प्रेम प्रतीतिहि कपि भजै, सदा धरै उर ध्यान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।
बजरंगबाण से विवाह बाधा खत्म कदली वन, या कदली वृक्ष के नीचे बजरंग बाण का पाठ करने से विवाह की बाधा खत्म हो जाती है। यहां तक कि तलाक जैसे कुयोग भी टलते हैं बजरंग बाण के पाठ से। -
बजरंग बाण से ग्रहदोष समाप्त अगर किसी प्रकार के ग्रहदोष से पीड़ित हों, तो प्रात:काल बजरंग बाण का पाठ, आटे के दीप में लाल बत्ती जलाकर करें। ऐसा करने से बड़े से बड़ा ग्रह दोष पल भर में टल जायेगा।
-साढ़ेसाती-राहु से नुकसान की भरपाई अगर शनि,राहु,केतु जैसे क्रूर ग्रहों की दशा,महादशा चल रही हो तो उड़द दाल के 21 या 51 बड़े एक धागे में माला बनाकर चढ़ायें। सारे बड़े प्रसाद के रुप में बांट दें। आपको तिल के तेल का दीपक जलाकर सिर्फ 3 बार बजरंगबाण का पाठ करना होगा।
-बजरंगबाण से कारागार से मुक्ति अगर किसी कारणवश जेल जाने के योग बन रहे हों, या फिर कोई संबंधी जेल में बंद हो तो उसे मुक्त कराने के लिए हनुमान जी की पूंछ पर सिंदूर से 11 टीका लगाकर 11 बार बजरंग बाण पढ़ने से कारागार योग से मुक्ति मिल जाती है।
अगर आप हनुमान जी को 11 गुलाब चढ़ाते हैं या फिर चमेली के तेल में 11 लाल बत्ती के दीपक जलाते हैं तो बड़े से बड़े कोर्ट केस में भी आपको जीत मिल जायेगी। -सर्जरी और गंभीर बीमारी टाले बजरंग बाण कई बार पेट की गंभीर बीमारी जैसे लीवर में खराबी, पेट में अल्सर या कैंसर जैसे रोग हो जाते हैं, ऐसे रोग अशुभ मंगल की वजह से होते हैं।
अगर इस तरह के रोग से मुक्ति पानी हो तो हनुमान जी को 21 पान के पत्ते की माला चढ़ाते हुए 5 बार बजरंग बाण पढ़ना चाहिये। ध्यान रहे कि बजरंगबाण का पाठ राहुकाल में ही करें। पाठ के समय घी का दीप ज़रुर जलायें।
-छूटी नौकरी दोबारा दिलाए बजरंग बाण अगर नौकरी छूटने का डर हो या छूटी हुई नौकरी दोबारा पानी हो तो बजरंगबाण का पाठ रात में नक्षत्र दर्शन करने के बाद करें। इसके लिए आपको मंगलवार का व्रत भी रखना होगा।
अगर आप हनुमान जी को नारियल चढ़ाने के बाद, उसे लाल कपड़े में लपेट कर घर के आग्नेय कोण रखते हैं तो मालिक स्वयं आपको नौकरी देने आ सकता है। -वास्तुदोष दूर करे बजरंगबाण कई बार घर में वास्तुदोष के चलते कई समस्या हो जाती है।
तो घर में वास्तुदोष दूर करने के लिए 3 बार बजरंगबाण का पाठ करना चाहिए। हनुमान जी को लाल झंडा चढ़ाने के बाद उसे घर के दक्षिण दिशा में लगाने से भी वास्तुदोष से मुक्ति मिलती है। घर में सकारात्मक ऊर्जा के लिए पंचमुखी हनुमान की प्रतिमा घर के मुख्य द्वार पर लगायें।
-बजरंग बाण से दवा असर करे कई बार गंभीर बीमारी में दवा फायदा नहीं करती। दवा फायदा करे इसके लिए 2 बार बजरंग बाण का पाठ करना चाहिए। साथ ही साथ संजीवनी पर्वत की रंगोली बनाकर उस पर तुलती के 11 दल चढ़ाने से दवा धीरे धीरे असर करने लगती है।
|| श्री बजरंग बाण ||
॥ दोहा ॥
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।
बजरंगबाण से विवाह बाधा खत्म कदली वन, या कदली वृक्ष के नीचे बजरंग बाण का पाठ करने से विवाह की बाधा खत्म हो जाती है। यहां तक कि तलाक जैसे कुयोग भी टलते हैं बजरंग बाण के पाठ से। -
बजरंग बाण से ग्रहदोष समाप्त अगर किसी प्रकार के ग्रहदोष से पीड़ित हों, तो प्रात:काल बजरंग बाण का पाठ, आटे के दीप में लाल बत्ती जलाकर करें। ऐसा करने से बड़े से बड़ा ग्रह दोष पल भर में टल जायेगा।
-साढ़ेसाती-राहु से नुकसान की भरपाई अगर शनि,राहु,केतु जैसे क्रूर ग्रहों की दशा,महादशा चल रही हो तो उड़द दाल के 21 या 51 बड़े एक धागे में माला बनाकर चढ़ायें। सारे बड़े प्रसाद के रुप में बांट दें। आपको तिल के तेल का दीपक जलाकर सिर्फ 3 बार बजरंगबाण का पाठ करना होगा।
-बजरंगबाण से कारागार से मुक्ति अगर किसी कारणवश जेल जाने के योग बन रहे हों, या फिर कोई संबंधी जेल में बंद हो तो उसे मुक्त कराने के लिए हनुमान जी की पूंछ पर सिंदूर से 11 टीका लगाकर 11 बार बजरंग बाण पढ़ने से कारागार योग से मुक्ति मिल जाती है।
अगर आप हनुमान जी को 11 गुलाब चढ़ाते हैं या फिर चमेली के तेल में 11 लाल बत्ती के दीपक जलाते हैं तो बड़े से बड़े कोर्ट केस में भी आपको जीत मिल जायेगी। -सर्जरी और गंभीर बीमारी टाले बजरंग बाण कई बार पेट की गंभीर बीमारी जैसे लीवर में खराबी, पेट में अल्सर या कैंसर जैसे रोग हो जाते हैं, ऐसे रोग अशुभ मंगल की वजह से होते हैं।
अगर इस तरह के रोग से मुक्ति पानी हो तो हनुमान जी को 21 पान के पत्ते की माला चढ़ाते हुए 5 बार बजरंग बाण पढ़ना चाहिये। ध्यान रहे कि बजरंगबाण का पाठ राहुकाल में ही करें। पाठ के समय घी का दीप ज़रुर जलायें।
-छूटी नौकरी दोबारा दिलाए बजरंग बाण अगर नौकरी छूटने का डर हो या छूटी हुई नौकरी दोबारा पानी हो तो बजरंगबाण का पाठ रात में नक्षत्र दर्शन करने के बाद करें। इसके लिए आपको मंगलवार का व्रत भी रखना होगा।
अगर आप हनुमान जी को नारियल चढ़ाने के बाद, उसे लाल कपड़े में लपेट कर घर के आग्नेय कोण रखते हैं तो मालिक स्वयं आपको नौकरी देने आ सकता है। -वास्तुदोष दूर करे बजरंगबाण कई बार घर में वास्तुदोष के चलते कई समस्या हो जाती है।
तो घर में वास्तुदोष दूर करने के लिए 3 बार बजरंगबाण का पाठ करना चाहिए। हनुमान जी को लाल झंडा चढ़ाने के बाद उसे घर के दक्षिण दिशा में लगाने से भी वास्तुदोष से मुक्ति मिलती है। घर में सकारात्मक ऊर्जा के लिए पंचमुखी हनुमान की प्रतिमा घर के मुख्य द्वार पर लगायें।
-बजरंग बाण से दवा असर करे कई बार गंभीर बीमारी में दवा फायदा नहीं करती। दवा फायदा करे इसके लिए 2 बार बजरंग बाण का पाठ करना चाहिए। साथ ही साथ संजीवनी पर्वत की रंगोली बनाकर उस पर तुलती के 11 दल चढ़ाने से दवा धीरे धीरे असर करने लगती है।
|| श्री बजरंग बाण ||
॥ दोहा ॥
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान ॥
जय हनुमन्त सन्त हितकारी, सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ।
जन के काज विलम्ब न कीजै, आतुर दौरि महा सुख दीजै।
जैसे कूदि सिन्धु महिपारा, सुरसा बदन पैठि विस्तारा ।
आगे जाय लंकिनी रोका, मारेहु लात गई सुरलोका ।
जाय विभीषन को सुख दीन्हा, सीता निरखि परमपद लीन्हा ।
बाग उजारि सिन्धु महं बोरा, अति आतुर जमकातर तोरा ।
अक्षय कुमार को मारि संहारा, लूम लपेट लंक को जारा ।
लाह समान लंक जरि गई, जय जय धुनि सुरपुर में भई ।
अब विलम्ब केहि कारन स्वामी, कृपा करहु उर अन्तर्यामी ।
जय जय लखन प्राण के दाता, आतुर होय दु:ख करहु निपाता ।
जै गिरिधर जै जै सुख सागर, सुर समूह समरथ भटनागर ।
ॐ हनु हनु हनु हनुमन्त हठीले, बैरिहि मारू बज्र की कीले ।
गदा बज्र लै बैरिहिं मारो, महाराज प्रभु दास उबारो ।
ॐ कार हुंकार महाप्रभु धावो, बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ।
ॐ ह्रिं ह्रिं ह्रिं हनुमन्त कपीसा, ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर शीशा ।
सत्य होहु हरि शपथ पायके, राम दूत धरु मारु जाय के ।
जय जय जय हनुमन्त अगाधा, दु:ख पावत जन केहि अपराधा ।
पूजा जप तप नेम अचारा, नहिं जानत हौं दास तुम्हारा ।
वन उपवन मग गिरि गृह माहीं, तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं ।
पांय परौं कर जोरि मनावौं, येहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।
जय अंजनि कुमार बलवन्ता, शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ।
बदन कराल काल कुल घालक, राम सहाय सदा प्रतिपालक ।
भूत, प्रेत, पिशाच निशाचर, अग्नि बेताल काल मारी मर ।
इन्हें मारु, तोहि शपथ राम की, राखउ नाथ मरजाद नाम की ।
जनकसुता हरि दास कहावो, ताकी शपथ विलम्ब न लावो ।
जै जै जै धुनि होत अकासा, सुमिरत होत दुसह दु:ख नाशा ।
चरन शरण कर जोरि मनावौं, यहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।
उठु उठु चलु तोहि राम दुहाई, पांय परौं कर जोरि मनाई ।
ॐ चं चं चं चं चपल चलंता, ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता ।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल, ॐ सं सं सहमि पराने खल दल ।
अपने जन को तुरत उबारो, सुमिरत होय आनंद हमारो ।
यह बजरंग बाण जेहि मारै, ताहि कहो फिर कौन उबारै ।
पाठ करै बजरंग बाण की, हनुमत रक्षा करै प्राण की ।
यह बजरंग बाण जो जापै, ताते भूत-प्रेत सब कांपै ।
धूप देय अरु जपै हमेशा, ताके तन नहिं रहै कलेशा ।
॥ दोहा ॥
प्रेम प्रतीतिहि कपि भजै, सदा धरै उर ध्यान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान ॥
बजरंग बाण और उसके तीव्र प्रभाव का कारण
हनुमान जी कलयुग में सर्वाधिक जाग्रत देवता माने जाते हैं जो सप्त चिरंजीवी में से एक हैं ,अर्थात जिनकी कभी मृत्यु नहीं हो सकती |
इनके सम्बन्ध में अनेक किवदंतियां हैं और आधुनिक युग में भी इन्हें कहीं कहीं उपस्थित रूप से माना जाता है अथवा इनकी उपस्थिति समझी जाती है |इन्होने भगवान् राम की ही सहायता नहीं की अपितु अर्जुन और भीम की भी सहायता की |
इन्हें रुद्रावतार भी कहा जाता है और एकमात्र यही हैं जो शनि ग्रह के प्रभाव को भी नियंत्रित कर सकते हैं |सामान्यतया जब भी हनुमान आराधना /उपासना की बात आती है ,लोगों के दिमाग में हनुमान चालीसा और सुन्दरकाण्ड के पाठ की याद आती है |यह सबसे अधिक प्रचलित पाठ हैं जिनके प्रभाव भी दीखते हैं |
हनुमान की कृपा प्राप्ति और उनके द्वारा कष्टों के निदान के लिए अनेक उपाय और पाठ इनके अतिरिक्त भी बनाए गए हैं जो भिन्न भिन्न समस्याओं में लोगों द्वारा प्रयोग होते हैं |इन्ही पाठों में दो पाठ ऐसे हैं जो अत्यधिक तीव्र प्रभावी हैं |यह पाठ बजरंग बाण और हनुमान बाहुक के हैं |
बजरंग बाण है तो हनुमान चालीसा जैसा ही पाठ किन्तु यह हनुमान चालीसा से अधिक प्रभावी है |शत्रु बाधा ,तांत्रिक अभिचार ,किया कराया ,भूत -प्रेत ,ग्रह दोष आदि के लिए यह बाण की तरह काम करता है।
इसीलिए इसका नाम बजरंग बाण है |बजरंग बाण चौपाइयों पर आधारित पाठ है किन्तु इसकी सफलता इसके शपथ में है |इसमें देवता को शपथ दी जाती है की वह पाठ कर्ता की समस्या दूर करे |यह शपथ की प्रक्रिया शाबर मंत्र जैसी है जिसके कारण बजरंग बाण की क्रिया प्रणाली बिलकुल भिन्न हो जाती है |
वास्तव में जब व्यक्ति शपथ देता है भगवान् को तो भगवान् शपथ के अधीन हो न हो ,व्यक्ति जरुर गहरे से भगवान् से जुड़ जाता है और प्रबाल आत्मविश्वास ,आत्मबल उत्पन्न होता है की अब तो समस्या जरुर हटेगी क्योंकि भगवान् को हमने शपथ दिया है |
तीव्र आंतरिक आवेग उत्पन्न होता है और जितनी भी आंतरिक शक्ति होती है व्यक्ति की उस समस्या के पीछे लग जाती है ,इस कारण सफलता बढ़ जाती है |कुछ ऐसा ही शाबर मन्त्रों के साथ होता है |इसके साथ ही पृथ्वी की सतह पर क्रियाशील अंग देवता और सहायक शक्तियाँ उस व्यक्ति के साथ जुड़ उसकी सहायता करने का प्रयत्न करती हैं |
यहाँ यह जरुर ध्यान देने की बात है की जब देवता को शपथ दी जाए तो बहुत सतर्कता और सावधानी की जरूरत हो जाती है ,क्यंकि फिर गलतियाँ क्षमा नहीं होती |
जब आप देवता को मजबूर करने का प्रयत्न करते हैं तब आपको भी नियंत्रित रहना होता है अन्यथा देवता की ऊर्जा तीव्र प्रतिक्रिया कर सकती है |
बहुत से लोग जो वैदिक हैं ,सनातन पद्धति से जुड़े हैं वह इस शपथ की प्रक्रिया को ,शपथ देने को अच्छा नहीं मानते ,किन्तु यह पाठ गोस्वामी तुलसीदास के समय बनाया गया है जो यह प्रकट करता है की उस समय सामाजिक विक्षोभ की स्थिति में जब सामान्य पाठ ,मंत्र आदि काम नहीं कर रहे थे तब शाबर मंत्र काम कर रहे थे ,अतः यह उस पद्धति पर बनाया गया |शाबर मन्त्रों में तो किसी भी देवता को आन दी जा सकती है ,शपथ दी जा सकती है ||
इसकी एक विशेष अलग कार्यप्रणाली होती है |इसी आधार पर हनुमान की शक्ति को अधिकतम पाने के लिए बजरंग बाण में शपथ का प्रयोग किया गया |यह पद्धति काम करती है और इसके अच्छे परिणाम भी मिलते हैं बस साधक खुद को नियंत्रित ,संतुलित और एकाग्र रखे |
जैसे की शाबर मन्त्रों में होता है की इनसे पृथ्वी की सतह पर क्रियाशील शक्तियाँ प्रभावित होती हैं वैसा ही बजरंग बाण में भी होता है की पृथ्वी की सतह पर क्रियाशील धनात्मक ऊर्जा से संचालित शक्तियाँ साधक की सहायता करने लगती हैं |
🙏🚩जय हनुमान🚩
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान ॥
बजरंग बाण और उसके तीव्र प्रभाव का कारण
हनुमान जी कलयुग में सर्वाधिक जाग्रत देवता माने जाते हैं जो सप्त चिरंजीवी में से एक हैं ,अर्थात जिनकी कभी मृत्यु नहीं हो सकती |
इनके सम्बन्ध में अनेक किवदंतियां हैं और आधुनिक युग में भी इन्हें कहीं कहीं उपस्थित रूप से माना जाता है अथवा इनकी उपस्थिति समझी जाती है |इन्होने भगवान् राम की ही सहायता नहीं की अपितु अर्जुन और भीम की भी सहायता की |
इन्हें रुद्रावतार भी कहा जाता है और एकमात्र यही हैं जो शनि ग्रह के प्रभाव को भी नियंत्रित कर सकते हैं |सामान्यतया जब भी हनुमान आराधना /उपासना की बात आती है ,लोगों के दिमाग में हनुमान चालीसा और सुन्दरकाण्ड के पाठ की याद आती है |यह सबसे अधिक प्रचलित पाठ हैं जिनके प्रभाव भी दीखते हैं |
हनुमान की कृपा प्राप्ति और उनके द्वारा कष्टों के निदान के लिए अनेक उपाय और पाठ इनके अतिरिक्त भी बनाए गए हैं जो भिन्न भिन्न समस्याओं में लोगों द्वारा प्रयोग होते हैं |इन्ही पाठों में दो पाठ ऐसे हैं जो अत्यधिक तीव्र प्रभावी हैं |यह पाठ बजरंग बाण और हनुमान बाहुक के हैं |
बजरंग बाण है तो हनुमान चालीसा जैसा ही पाठ किन्तु यह हनुमान चालीसा से अधिक प्रभावी है |शत्रु बाधा ,तांत्रिक अभिचार ,किया कराया ,भूत -प्रेत ,ग्रह दोष आदि के लिए यह बाण की तरह काम करता है।
इसीलिए इसका नाम बजरंग बाण है |बजरंग बाण चौपाइयों पर आधारित पाठ है किन्तु इसकी सफलता इसके शपथ में है |इसमें देवता को शपथ दी जाती है की वह पाठ कर्ता की समस्या दूर करे |यह शपथ की प्रक्रिया शाबर मंत्र जैसी है जिसके कारण बजरंग बाण की क्रिया प्रणाली बिलकुल भिन्न हो जाती है |
वास्तव में जब व्यक्ति शपथ देता है भगवान् को तो भगवान् शपथ के अधीन हो न हो ,व्यक्ति जरुर गहरे से भगवान् से जुड़ जाता है और प्रबाल आत्मविश्वास ,आत्मबल उत्पन्न होता है की अब तो समस्या जरुर हटेगी क्योंकि भगवान् को हमने शपथ दिया है |
तीव्र आंतरिक आवेग उत्पन्न होता है और जितनी भी आंतरिक शक्ति होती है व्यक्ति की उस समस्या के पीछे लग जाती है ,इस कारण सफलता बढ़ जाती है |कुछ ऐसा ही शाबर मन्त्रों के साथ होता है |इसके साथ ही पृथ्वी की सतह पर क्रियाशील अंग देवता और सहायक शक्तियाँ उस व्यक्ति के साथ जुड़ उसकी सहायता करने का प्रयत्न करती हैं |
यहाँ यह जरुर ध्यान देने की बात है की जब देवता को शपथ दी जाए तो बहुत सतर्कता और सावधानी की जरूरत हो जाती है ,क्यंकि फिर गलतियाँ क्षमा नहीं होती |
जब आप देवता को मजबूर करने का प्रयत्न करते हैं तब आपको भी नियंत्रित रहना होता है अन्यथा देवता की ऊर्जा तीव्र प्रतिक्रिया कर सकती है |
बहुत से लोग जो वैदिक हैं ,सनातन पद्धति से जुड़े हैं वह इस शपथ की प्रक्रिया को ,शपथ देने को अच्छा नहीं मानते ,किन्तु यह पाठ गोस्वामी तुलसीदास के समय बनाया गया है जो यह प्रकट करता है की उस समय सामाजिक विक्षोभ की स्थिति में जब सामान्य पाठ ,मंत्र आदि काम नहीं कर रहे थे तब शाबर मंत्र काम कर रहे थे ,अतः यह उस पद्धति पर बनाया गया |शाबर मन्त्रों में तो किसी भी देवता को आन दी जा सकती है ,शपथ दी जा सकती है ||
इसकी एक विशेष अलग कार्यप्रणाली होती है |इसी आधार पर हनुमान की शक्ति को अधिकतम पाने के लिए बजरंग बाण में शपथ का प्रयोग किया गया |यह पद्धति काम करती है और इसके अच्छे परिणाम भी मिलते हैं बस साधक खुद को नियंत्रित ,संतुलित और एकाग्र रखे |
जैसे की शाबर मन्त्रों में होता है की इनसे पृथ्वी की सतह पर क्रियाशील शक्तियाँ प्रभावित होती हैं वैसा ही बजरंग बाण में भी होता है की पृथ्वी की सतह पर क्रियाशील धनात्मक ऊर्जा से संचालित शक्तियाँ साधक की सहायता करने लगती हैं |
🙏🚩जय हनुमान🚩
Wednesday, November 27, 2019
संत की रहमत शराबी पर
एक मुस्लिम लड़की थी जो ब्यास जाना चाहती थी, पर उसके घरवाले उसे ब्यास नहीं भेजते थे. एक दिन वो घर से बिना किसी को बताए अकेली ही ब्यास के लिए निकल पड़ी. वो एक ट्रक में, जो की अमृतसर की ओर जा रहा था, में बैठ गई. आधे रास्ते में पहुचने तक ही रात हो गई. उस ट्रक वाले की नीयत ख़राब हो गई. वो लड़की उस आदमी से बचने के लिए अकेली ही अंधेरे में भाग निकली. बहुत दूर जाने के बाद वो उस आदमी से बच
निकली . आगे का रास्ता उसे मालूम नहीं था. इधर उधर भटकते हुए वो एक घर तक पहुंची. उस लड़की ने उस घर में जाके पूरी बात बताई और मदद मांगी, और बेनती की के उसे ब्यास पहुंचा दिया जाये. उस घर में एक रिटायर्ड फौजी अफ़सर रहता था जो उस वक़्त शराब पी रहा था. उसने कहाँ की में अपनी शराब छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा, मुझे इससे ज्यादा कोई काम जरुरी नहीं लगता, सुबह तुम्हे छोड़ दूंगा. लड़की ने बहुत मिन्नत की तो वो फौजी तैयार हो गया उसे रात की ही छोड़ के आने के लिए, पर उसने अपनी शराब की बोतल साथ ले ली रास्ते में पीने के लिए. जब वो ब्यास पहुँचे तो आदमी ने कहा की ब्यास आ गया है अब तुम सुरक्षित हो और आगे खुद चली जाओ. पर लड़की कहने लगी की मुझे अन्दर तक छोड़ दो. उस आदमी को पता था की ब्यास में शराब लेकर नहीं जा सकते, सो उसने अपनी शराब एक पेड़ के निचे गड्ढा खोद कर छुपा दी और डेरे में अन्दर चला गया उस लड़की को छोड़ने.
जब वो वापस आया तो देखा की बाबाजी उस पेड़ के नीचे बैठे हुए थे. उसने पूछा की आप यहाँ क्या कर रहे है तो बाबाजी ने कहा की तुमने अपनी इतनी प्यारी चीज छोड़ के मेरे पास आने वाली लड़की की रक्षा की है , मेरे काम के लिए आये हो तो क्या में तुम्हारी चीज (शराब) की देखभाल नहीं करता? मेरा फ़र्ज़ है तुम्हारे सामान की रक्षा करना इसलिए मैं यहाँ पहरा दे रहा था. ये बात सुनकर उस आदमी की आँखों में आंसू आ गये और वो भी संतमत पर चलने लगा और उसने शराब छोड़ दी.
भजन- सिमरन करने सेे कर्मों का भुगतान
एक बार राजा जनक घूमते घूमते उन रूहों के पास पहुँच जाते है जिन्हें बहुत ज्यादा दर्दनाक यातनाएं दी जा रही थी।
राजा जनक उनके उपर होते हुये जुल्म से से दुखी होकर धर्मराज से बोले," महाराज ! क्या इनके कर्मों का कोई समाधान हो सकता है?"
धर्मराज बोले: हाँ हो सकता है यदि कोई व्यक्ति अपने 2.30 घंटे का भजन सिमरन इन रूहों को दे दे तो तो इनके सभी कर्मो का भुगतान हो सकता है। यह सुनकर राजा जनक बोले, मैं अपने 2.30 घंटे के भजन सिमरन का फल इन रूहों को देने को तैयार हूं।
यह सुनकर धर्मराज ने तराजू मंगवाया और राजा जनक से बोले एक तरफ मैं रूहों को रखता हूं और दूसरी और आपके 2.30 घंटे के भजन सिमरन को रखता हूं।
जैसे ही तराजू के एक तरफ एक पल किया हुआ भजन सिमरन रखा और दूसरी तरफ रूहों को रखना प्ररम्भ किया तो सारी की सारी रूहें एक ही बार में अपने पाप कर्मों से मुक्त हो गयी।
इसलिए कलयुग में मालिक ने 2.30 घंटे के भजन-सिमरन का बहुत ही सरल समाधान बताया है। जो हमें नित-प्रति दिन बे नागा करना चाहिए। जिससे हमारे दुखों का समाधान हो सके।
हम न बोलें फिर भी वह सुन लेता है, इसीलिये उसका नाम परमात्मा है।
वह न बोले फिर भी हमें सुनायी दे,उसी का नाम श्रद्धा है।
मालिक को पाने के लिए ( सतगुरु ) जरुरी है...
बुरे कर्म मिटाने के लिए ( सेवा ) जरूरी है...
आत्मा की शान्ति के लिए ( सिमरन ) जरूरी है...
चौरासी से मुक्ति के लिए ( नाम ) जरूरी है...
संतो की दया
एक बार एक अंधा व्यक्ति जो की परमात्मा का भक्त था, डेरे आया । तो उसने एक सेवादार वीर से कहा के वीर जी मैं आपके महाराज जी से बात करना चाहता हु आप बता सकते है की मैं उनसे कैसे मिल सकता हूँ ?
तो उस सेवादार वीर ने कहा कि कुल मालिक इस वक्त सतंसग फरमा रहे है। सो मैं आप को पंडाल मे छोड आता हुं। और संगत भी ज्यादा है। मुलाकात नहीं हो सकती। और उस सेवादार वीर ने उस अधें व्यक्ति को पंडाल में सबसे पिछे एक साईड पर बैठा दिया।
उसने बडे प्यार से सतंसग सुना पहले ही सतंसग ने उसके अंदर ऐसी हलचल पैदा कर दी की वो नाम दान के बारे में सोचने लगा। उसी वक्त वो सेवादार वीर उसके पास आया और पूछने लगा सतसगं आपको कैसा लगा तो उस व्यक्ति ने फिर कहा कि मुझे अपने मुर्शिद से जरुर मिलवाओ। तो उस सेवादार वीर ने कहा वीर तु कल का सतसगं फिर सुन और रात को मेरे पास ही रहना।
दुसरे दिन भी उस सेवादार वीर ने उसे सतसगं पडांल मे बिठा दिया । दुसरे दिन भी महाराज जी ने नाम दान के
बारे में ही समझाया , उस व्यक्ति की आखों से ट्प-ट्प आसुं बह रहे थे। उसको गुरु के प्रति बहुत बैराग आया और जारो-जार रोए जा रहा था और अदंर से फरियाद की मालिक क्या तुं मेरे भी गुनाह बक्श देगा।
दुसरे दिन सतसगं समाप्ति पर वही सेवादार वीर आया और उसको साथ ले गया, उस अंधें व्यक्ति ने उस सेवादार वीर से फरियाद की , कि मुझे भी नाम दान दिलवा दो। और क्या मुझे भी नाम दान मिल सकता हैं । तो उस सेवादार ने कहा कि हुक्म तो नहीं है की किसी अधें व्यक्ति को नाम दान मिले पर आपकी तड्प देख करआपको साथ ले चलता हू, उस वक्त छांटी भी इतनी सख्त नहीं थी, लाइन में कही पर रुकावट आती तो गुरु के प्रति उसकी तड्प को देख कर उसे आगे भेज देते ओर उसकी तड्प और बैराग ने वो सब दिवारे तोड दी जो उसके मिलाप के रास्ते की रुकावट बन रही थी।
आखिर जब सच्चे पातशाह कुल मालिक जी के सामने पेश किया तो सतगुरु जी ने फरमाया कि "तेरी आंखो की जोत नहीं है इसलिए तुम्हे नाम-दान नहीं मिल सकता " वो व्यक्ति इतना सुनते ही वैराग में आकर कहता है की:- अच्छा फिर आप मुझे उस जगह पर भेज दिजीए जहा नाम दान मिल सकता हो।उसकी तड्प को देखते हुए जानी-जान सतगुरु जी ने उसे नाम दान वाली तरफ बिठा दिया ओर कहा कि इसको सब से पिछे बिठा दो।इसी तरह ही किया गया ।
जब सब को नाम दान की बक्शिश हो चुकी तो सतगुरु जी खुद चल कर उसके पास आए ओर कहां की भाई खडा हो जब खडा हुआ तो बोले कि "तक चंगी तरा मेरे वाल्ल"(मेरी तरफ गोर से देखो) क्योकी एह सरुप तेरे काम आवेगा जब उसने उपर देखा तो उसकी आखों की जोत आ गइ थी। तो उसने सच्चे पातशाह जी के दर्शन किए।तो कुल मालीक जी ने उसको नाम दान की बक्शीश कर दी। उसका भरोसा पक चुका था की जो थोडी देर के लिए बाहरी जोत बक्श सकता हैं वो अंदर की जोत के दर्शन करवा सकता हैं । सो उसने बडे ड्ट कर सतगुरु जी के उपदेश का पालन करते हुए भजन सिमरन किया ओर मालिक की मौज से उसका परदा खुल गया। उसको अपने पिछले जन्म की सारी कहानी का पता चल गया।
कुछ समय बाद वो डेरे आया।महाराज जी सत्सगं फरमा रहे थे वो बिच मे उठ कर कहता है की हजुर अर्ज करनी है, तो महाराज जी ने फरमाया कि बैठ जाओ कोई बात नहीं तुम बैठ जाओ वो व्यक्ति फिर खडा हो गया कि हजुर रहा नहीं जाता आप आज्ञा दिजीए. तो महाराज जी ने कहा " चंगा चला ले जेडी बंदुक चलानी है "
ओ दुनिया वालो तुम गलतफहमी में मत रहना एह ता पुरा गुरु है। और पूर्ण परमात्मा है मै आपको अपनी पिछले जन्म की कहानी सुनाता हुं :-
मैं पिछले जन्म में गिद्द था और डेरे के रास्ते में एक बबुल के पेड पर मेरा ठिकाना था एक बार कुछ सत्संगी डेरे से लाया हुआ लंगर का प्रशाद उसी पेड के निचे बैठ कर खा रहे थे उनके हाथ से जो प्रशाद नीचे गिर गया उनके जाने के बाद मैने वो गिरा हुआ प्रशाद खा लिया इसलिए मुझे मनुष्य का जन्म मिला ओर मैं अधां क्यू हूआ एक कुत्ते का पिल्ला ट्रक की साइड लगने से अधमरी अवस्था में पडा था और तड्फ रहा था। मैं गिद्द जात मुझे मॉस के सिवा कोई चीज अच्छी नही लगती थी में उस पिल्ले के पास गया ओर उसकी आखें निकाल कर खा गया इसी कारण मुझे प्रशाद खाने से मनुष जन्म तो मिल गया पर पिल्ले की आखें खाने के कारण मैं इस जन्म में अधां हूं
सो भाईयो मुझे ये सारी सोझी पुरे गुरु द्वारा ही मिली है। आप भी इन्हे आम इन्सान समझने की गलती मत करना...
स्वामी रामतीर्थ की गुरु के प्रति श्रद्धा
स्वामी रामतीर्थ बचपन में गाँव के ही एक मौलवी साहब से पढ़ा करते थे। अपनी शुरूआती पढाई समाप्त होने पर अब उन्हें स्कूल भेजा जाना था। स्वामी रामतीर्थ के पिता मौलवी साहब के पढ़ाने के तरीके से काफी प्रसन्न थे। वे रामतीर्थ को अच्छे से पढ़ाने के लिए मौलवी साहब को मासिक वेतन के अलावा भी कुछ भेंट देना चाहते थे। जब रामतीर्थ को पिता के इस विचार के बारे में पता चला तो वे बहुत खुश हुए।
वे अपने पिता के पास गए और बोले,”पिताजी! मौलवी साहब को अपनी बढ़िया दूध देने वाली गाय दे दीजिये। इन्होने मुझे सबसे बढ़िया दूध मतलब विद्या का दूध पिलाया है।”
स्वामी रामतीर्थ की अपने गुरु के प्रति इस श्रद्धा को देखकर उनके पिता और मौलवी साहब दोनों ही प्रसन्न हो गए।
Friday, November 22, 2019
मलूकदास और डकैत
मलूकदास नाम के एक सेठ थे। उनका जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक ग्राम में वैशाख वदी पंचमी, संवत् 1631 को लाला सुन्दर दास खत्री कक्कड़ के घर हुआ था। पूर्व के पुण्य से वे बाल्यावस्था में तो अच्छे रास्ते चले और भक्ति भाव का आश्रय लिया लेकिन जवानी में जरा भटक गये।
उनके बँगले के नजदीक ही एक मंदिर था। एक रात्रि को पुजारी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी। सुबह उन्होंने पुजारी को खूब डाँटा कि ‘‘यह सब क्या?’’
पुजारी बोले : ‘‘एकादशी का जागरण-कीर्तन चल रहा था।’’
‘‘अरे! क्या जागरण-कीर्तन करते हो? हमारी नींद हराम कर दी। अच्छी नींद के बाद व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है, फिर कमाता है तब खाता है।’’
पुजारी ने कहा : सेठजी! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।’’
‘‘कौन खिलाता है? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा?’’
‘‘वही तो खिलाता है।’’
‘‘क्या भगवान खिलाता है? हम कमाते हैं तब खाते हैं।’’
‘‘निमित्त होता है तुम्हारा कमाना और पत्नी का रोटी बनाना। बाकी सबको खिलानेवाला, सब का पालनहार तो वह जगन्नियंता ही है।’’
‘‘क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है?
बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो। क्या तुम्हारा पालने वाला एक-एक को आकर खिलाता है? आखिर हम कमाते है तभी खाते है’’
‘‘सभी को वही खिलाता है।’’
‘‘हम नहीं खाते उसका दिया।’’
‘‘पुजारी! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटो में नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा, नहीं तो मैं तुम्हारा सिर उड़ा दूँगा।’’
‘‘सेठजी! मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बहुत पहुँच है लेकिन उसके हाथ लंबे है। जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता।’’
ठीक है, आजमाकर देख लेना।’’
पुजारी कोर्इ सात्त्विक, भगवान में प्रीतिवाले भक्त रहे होंगे।
मलूकदास किसी घोर जंगल में चले गये और विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर चढ़ कर बैठ गये कि ‘अब देखें इधर कौन खिलाने आता है? चौबीस घंटे बीत जायेंगे और पुजारी की हार हो जायेगी। सदा के लिए कीर्तिन की झंझट मिट जायेगी।’
दो-तीन घंटे के बाद अजनबी आदमी वहाँ आया। उसने वृक्ष के नीचे आराम किया। फिर अपना सामान उठाकर चल दिया लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया।
भूल गया कहो, छोड़ गया कहो। भगवान ने किसी मनुष्य को प्रेरणा की थी अथवा मनुष्य रूप में साक्षात् भगवत्सत्ता ही वहाँ आयी थी, यह तो भगवान ही जानें।
थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ से पसार हुए। उनमें से एक ने अपने सरदार से कहा : उस्ताद! यहाँ कोर्इ थैला पड़ा है।’’
‘‘क्या है? जरा देखो।’’
खोलकर देखा तो उसमें गरमागरम भोजन से भरा टिफिन!
‘‘उस्ताद! भूख लगी है, लगता है यह भोजन भगवान ने ही भेजा है।’’
‘‘अरे! तेरा भगवान यहाँ कैसे भोजन भेजेगा? हमको पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा अथवा पुलिस का कोर्इ “षड्यंत्र होगा। इधर-उधर देखो जरा कौन रखकर गया है?’’
मलूकदास सेठ ऊपर बैठे-बैठे सोचने लगे कि ‘अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ेंगे।’
वे तो चुप रहे लेकिन हृदय की धड़कने चलाता है, भक्त-वत्सल है वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शांत कैसे रहता? उसने उन डकैतों को प्रेरित किया कि ‘ऊपर भी देखो।’ उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा।
डकैत चिल्लाये : अरे! नीचे उतर।’’
‘‘मैं नहीं उतरता।’’
‘‘क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा।’’
‘‘मैंने नहीं रखा। कोर्इ यात्री अभी आया था, वही इसे भूलकर चला गया।’’
‘‘नीचे उतर । तुने ही रखा होगा जहर-वहर मिलाकर और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है, तुझे ही यह भोजन खाना पडे़गा।’’
अब कौन-सा काम वह सर्वेश्वर किसके द्वारा किस निमित्त से करवाये अथवा उसके लिए क्या रूप ले यह उसकी मर्जी की बात है । बड़ी गजब की व्यवस्था है उस परमेश्वर की!
मलूकचंद बोले : ‘‘मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतर्इ नहीं खाऊँगा।’’
‘‘पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है। अरे! नीचे उतर, अब तो तुझे खाना ही होगा।’’
‘‘मैं नहीं खाऊँगा, नीचे भी नहीं उतरूँगा।’’
‘‘ अरे! कैसे नहीं उतरेगा?’’
डकैतों के सरदार ने अपने एक आदमी को हुक्म दिया : ‘‘इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।’’ डकैत ने मलूकदास को पकड़कर नीचे उतारा।
‘‘ले, खाना खा।’’
‘‘मैं नहीं खाऊँगा।’’
उस्ताद ने धड़ाक- से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया। मलूकचंद को पुजारी की बात याद आयी कि ‘ नहीं खाओगे तो मारकर भी खिलायेगा…’
मूलकचंद बोले : ‘‘मैं नहीं खाऊँगा।’’
‘‘अरे! कैसे नहीं खायेगा? इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो।’’
वहाँ कोर्इ लकड़ी की डंडी पड़ी थी। डकैतों ने उससे उसका मुँह खोला और जबरदस्ती एक कौर ठूँस दिया । वे नहीं खा रहे थे तो डकैत उन्हें पीटने लगे।
अब मलूकचंद ने सोचा कि ‘ये पाँच है और मैं अकेला हूँ। नहीं खाऊँगा तो ये मेर हड्डी- पसली एक कर देंगे।’ इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन-ही मन कहा ‘मान गये मेरे बाप! मारकर भी खिलाता है। डकैतों के रूप में खिला, चाहे भक्तों के रूप में खिला लेकिन खिलानेवाला तो तू ही है। अपने पुजारी की बात तूने सत्य साबित कर दिखायी।’
मूलकदास के बचपन की भक्ति की धारा फूट पड़ी ।उनको मार-पीटकर डकैत वहाँ से चले गये तो मलूकदास भागे और पुजारी के पास आकर बोले : ‘‘पुजारी जी ! मान गये आपकी बात कि नहीं खायें तो वह मारकर भी खिलाता है।’’
पुजारी बोले : ‘‘वैसे तो तीन दिन तक कोर्इ खाना न खाये तो वह जरूर किसी-न-किसी रूप मे आकर खिलाता है लेकिन मैंने प्रार्थना की थी कि ‘तीन दिन की नहीं एक दिन की शर्त रखी है, तू कृपा करना।’ अगर कोर्इ सच्ची श्रद्धा और विश्वास से हृदयपूर्वक प्रार्थना करता है तो वह अवश्य सुनता है। वह तो सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ है। उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं हैं।’’
कर्तु शक्या अकर्तुं शक्यं कर्तु शक्यम्।
Thursday, November 21, 2019
दान की महिमा
Hare Krishna
(1)दान से वस्तु घटती नहीं बल्कि बढ़ती है।
(2)जब घर में धन और नाव में पानी आने लगे, तो उसे दोनों हाथों से निकालें, ऐसा करने में बुद्धिमानी है, हमें धन की अधिकता सुखी नहीं बनाती।संत कबीर
(3)सैकड़ों हाथो से इकट्ठा करो और हजारों हाथों से बांटो।अथर्ववेद
(4)सज्जनों कि रीति यह है कि कोई अगर उनसे कुछ मांगे तो वे मुख से कुछ न कहकर, काम पूरा करके ही उत्तर देते हैं।कालिदास
(5)जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम, दोउ हाथ उलीचिये, यही सयानों काम।कबीर
(6)तुम्हारा बायाँ हाथ जो देता है उसे दायाँ हाथ ना जानने पाए।बाइबिल
(7)दान देकर तुम्हे खुश होना चाहिए क्योंकि मुसीबत दान की दीवार कभी नहीं फांदती।हजरत मोहम्मद
(8)सबसे उत्तम दान यह है कि आदमी को इतना योग्य बना दो कि वह बिना दान के काम चला सके।तालमुद
(9)दान के लिए वर्तमान ही सबसे उचित समय है।
(10)युधिस्तर के पास एक भिखारी आया। उन्होंने उसे अगले दिन आने के लिए कह दिया। इस पर भीम हर्षित हो उठे। उन्होंने सोचा कि उनके भाई ने कल तक के लिए मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है।महाभारत
(11)विनम्र भाव से ऐसे दान करना चाहिए जैसे उसके लेने से आप कृतज्ञ हुए।डा. के. के. अग्रवाल
(12)सब दानों में ज्ञान का दान ही श्रेष्ठ दान है।मनुस्मृति
(13)दान, भोग और नाश ये धन की तीन गतियाँ हैं। जो न देता है और न ही भोगता है, उसके धन की तृतीय गति (नाश) होती है।भर्तृहरि
(14)त्याग से पाप का मूलधन चुकता है और दान से ब्याज।विनोबा भावे
(15)जो दान अपनी कीर्ति-गाथा गाने को उतावला हो उठता है, वह अहंकार एवं आडम्बर मात्र रह जाता है।हुट्टन
(16)इन दोनों व्यक्तियों के गले में पत्थर बाँधकर पानी में डूबा देना चाहिए- एक दान न करने वाला धनिक तथा दूसरा परिश्रम न करने वाला दरिद्र।
(17)जो दानदाता इस भावना से सुपात्र को दान देता है कि, तेरी (परमात्मा) वस्तु तुझे ही अर्पित है; परमात्मा उसे अपना प्रिय सखा बनाकर उसका हाथ थामकर उसके लिये धनों के द्वार खोल देता है; क्योंकि मित्रता सदैव समान विचार और कर्मों के कर्ता में ही होती है, विपरीत वालों में नहीं।
(18)जो न दान देता है, न भोग करता है, उसका धन स्वतः नष्ट हो जाता है। अतः योग्य पात्र को दान देना चाहिए।
(19)जो मनुष्य अपने समीप रहने वालों की तो सहायता नहीं करता, किन्तु दूरस्थ की सहायता करता है, उसका दान, दान न होकर दिखावा है।
(20)अभय-दान सबसे बडा दान है।स्वामी विवेकानन्द
(21)दान-पुण्य केवल परलोक में सुख देता है पर योग्य संतान सेवा द्वारा इहलोक और तर्पण द्वारा परलोक दोनों में सुख देती है।कालिदास
(22)संपदा को जोड़-जोड़ कर रखने वाले को भला क्या पता कि दान में कितनी मिठास है।आचार्य श्रीराम शर्मा
(23)पिता की सेवा करना जिस प्रकार कल्याणकारी माना गया है वैसा प्रबल साधन न सत्य है, न दान है और न यज्ञ हैं।वाल्मीकि
(24)इस जन्म में परिश्रम से की गई कमाई का फल मिलता है और उस कमाई से दिए गए दान का फल अगले जन्म में मिलता है।गुरुवाणी
(25)हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ो को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं।चाणक्य
(26)अपात्र को दिया गया दान व्यर्थ है। अज्ञानी के प्रति भलाई व्यर्थ है। गुणों को न समझने वाले के लिए गुण व्यर्थ है। कृतघ्न के लिए उदारता व्यर्थ है।अज्ञात
(27)अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें।धम्मपद
(28)दुखकातर व्यक्तियों को दान देना ही सच्चा पुण्य है।तुकाराम
(29)तम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है।रवींद्रनाथ ठाकुर
(30)अभयदान ही सर्वश्रेष्ठ दान है।सूत्रकृतांग
(31)तपस्या से लोगों को विस्मित न करे, यज्ञ करके असत्य न बोले। पीडि़त हो कर भी गुरु की निंदा न करे। और दान दे कर उसकी चर्चा न करे।मनुस्मृति
(32)शिवस्वरूप परमात्मा के इस शरीर में प्रतिष्ठित होने पर भी मूढ़ व्यक्ति तीर्थ, दान, जप, यज्ञ, लकड़ी और पत्थर मेंशिव को खोजा करता है।जाबालदर्शनोपनिषद
(33)जिसने शीतल एवं शुभ्र सज्जन-संगति रूपी गंगा में स्नान कर लिया उसको दान, तीर्थ तप तथा यज्ञ से क्या प्रयोजन?वाल्मीकि
(34)पानी में तेल, दुर्जन में गुप्त बात, सत्पात्र में दान और विद्वान व्यक्ति में शास्त्र का उपदेश थोड़ा भी हो, तो स्वयं फैल जाता।चाणक्यनीति
(35)अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें।धम्मपद
(36)त्याग पीने की दवा है, दान सिर पर लगाने की सौंठ। त्याग में अन्याय के प्रति चिढ़ है, दान में नाम का लिहाज़ है।विनोबा भावे
(37)सर्वोपरि दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, वह विद्या और ज्ञान का दान है।स्वामी रामतीर्थ
(38)तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है।रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(39)जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायां हाथ न जानने पाए, ताकि तेरा दान गुप्त हो।नवविधान
(40)सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है।रामचंद्र शुक्ल
(41)दानी भी चार प्रकार के होते हैं- कुछ बोलते हैं, देते नहीं, कुछ देते हैं, कभी बोलते नहीं। कुछ बोलते भी हैं और देते भी हैं और कुछ न बोलते हैं न देते हैं।स्थानांग
(42)दान और युद्ध को समान कहा जाता है। थोड़े भी बहुतों को जीत लेते हैं। श्रद्धा से अगर थोड़ा भी दान करो तो परलोक का सुख मिलता है।जातक
(43)प्रसन्न चित्त से दिया गया अल्प दान भी, हजारों बार के दान की बराबरी करता है।विमानवत्थु
(44)तपस्या से लोगों को विस्मित न करें, यज्ञकरके असत्य न बोलें। पीड़ित होकर भी गुरु की निंदा न करें। और दान देकर उसकी चर्चा न करें।मनुस्मृति
(45)निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है।जातक
(46)सच्चा दान दो प्रकार का होता है – एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है।रामचंद्र शुक्ल
(47)मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अदोह, अनुग्रह और दान – यह सज्जनों का सनातन धर्म है।वेदव्यास
(48)दान, भोग और नाश – ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।भर्तृहरि
(49)दुखकातर व्यक्तियों को दान देना ही सच्चा गुण है।तुकाराम
(50)तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है।रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(51)सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है।रामचंद्र शुक्ल
(52)समय बीतने पर उपार्जित विद्या भी नष्ट हो जाती है, मज़बूत जड़ वाले वृक्ष भी गिर जाते हैं, जल भी सरोवर में जाकर (गर्मी आने पर) सूख जाता है। लेकिन सत्पात्र दिए दान का पुण्य ज्यों का त्यों बना रहता है।भास
(53)तपस्या से लोगों को विस्मित न करें, यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें।मनुस्मृति
(54)दान तो वही श्रेष्ठ है जो किसी को दीन नहीं बनाता। दया या मेहरबानी से जो हम देते हैं उसके कारण दूसरे की गर्दन नीचे झुकाते हैं।विनोबा भावे
(55)क्रोध न करके क्रोध को, भलाई करके बुराई को, दान करके कृपण को और सत्य बोलकर असत्य को जीतना चाहिए।वेदव्यास
(56)तपस्या से लोगों को विस्मित न करे, यज्ञ करके असत्य न बोले। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करे। और दान दे कर उसकी चर्चा न करे।मनुस्मृति
(57)निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है।जातक
(58)दान का भाव एक बड़ा उत्तम भाव है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि समाज में दान-पात्रों का एक वर्ग पैदा कर दिया जाए।संपूर्णानंद
(59)समुद्रों में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना व्यर्थ है, धनाढ्यों को दान देना और दिन के समय दीये को जला देना निरर्थक है।चाणक्यनीति
(60)देते हुए पुरुषों का धन क्षीण नहीं होता। दान न देने वाले पुरुष को अपने प्रति दया करने वाला नहीं मिलता।ऋग्वेद
(61)तुम्हें जो दिया वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है।रवींद्रनाथ टैगोर
(62)मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अदोह, अनुग्रह और दान- यही सज्जनों का धर्म है।वेदव्यास
(63)अपात्र को दिया गया दान व्यर्थ है। अफल बुद्धि वाले और अज्ञानी के प्रति की गई भलाई व्यर्थ है। गुण को न समझ सकने वाले के लिए गुण व्यर्थ है। कृतघ्न के लिए उदारता व्यर्थ है।अज्ञात
(64)अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें।धम्मपद
(65)शांति, क्षमा, दान और दया का आश्रय लेने वाले लोगों के लिए शील ही विशाल कुल है, ऐसा विद्वानों का मत है।क्षेमेंद्र
(66) सर्वोपरि श्रेष्ठ दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, विद्या व ज्ञान का दान है।स्वामी रामतीर्थ
घर में सुख समृद्धि आती है रामचरितमानस के इस चौपाई से
!! जब ते राम ब्याही घर आये, नित नव मंगल मोद बधाये!!
!!भुवन चारी दस बूधर भारी, सूकृत मेघ वर्षहिं सूखवारी !!
!!रिद्धी सिद्धी संपति नदी सूहाई , उमगि अव्धि अम्बूधि तहं आई!!
!!मणिगुर पूर नर नारी सुजाती, शूचि अमोल सुंदर सब भाँति !!
!! कही न जाई कछू इति प्रभूति , जनू इतनी विरंची करतुती !!
!!सब विधि सब पूरलोग सुखारी, रामचन्द्र मुखचंद्र निहारी!!
!! जब ते राम ब्याही घर आये, नित नव मंगल मोद बधाये!!
यह चौपाई श्री तुलसीदासकृत *रामचरितमानस* के दूसरे सोपन *श्री अयोध्याकाण्ड* में वर्णित है !यह चौपाई श्री राम जी तथा सीता माता के विवाहोपरान्त श्री अयोध्या धाम आने के समय की है !
*एसी मान्यता है इस चौपाई से घर में सुख समृद्धि आती है ।*
!!भुवन चारी दस बूधर भारी, सूकृत मेघ वर्षहिं सूखवारी !!
!!रिद्धी सिद्धी संपति नदी सूहाई , उमगि अव्धि अम्बूधि तहं आई!!
!!मणिगुर पूर नर नारी सुजाती, शूचि अमोल सुंदर सब भाँति !!
!! कही न जाई कछू इति प्रभूति , जनू इतनी विरंची करतुती !!
!!सब विधि सब पूरलोग सुखारी, रामचन्द्र मुखचंद्र निहारी!!
!! जब ते राम ब्याही घर आये, नित नव मंगल मोद बधाये!!
यह चौपाई श्री तुलसीदासकृत *रामचरितमानस* के दूसरे सोपन *श्री अयोध्याकाण्ड* में वर्णित है !यह चौपाई श्री राम जी तथा सीता माता के विवाहोपरान्त श्री अयोध्या धाम आने के समय की है !
*एसी मान्यता है इस चौपाई से घर में सुख समृद्धि आती है ।*
Monday, November 18, 2019
अर्जुन के रोम-रोम से से श्रीकृष्ण की मधुर ध्वनि निकलना
श्रीकृष्ण |
एक बार भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा–’देव ! आज किसी भक्त श्रेष्ठ का दर्शन कराने की कृपा करें।’ भगवान शंकर तत्काल उठ खड़े हुए और कहा–’जीवन के वही क्षण सार्थक हैं जो भगवान के भक्तों के सांनिध्य में व्यतीत हों।’ भगवान शंकर पार्वतीजी को वृषभ पर बैठाकर चल दिए। पार्वतीजी ने पूछा–’हम कहां चल रहे हैं?’ शंकरजी ने कहा–’हस्तिनापुर चलेंगे। जिनके रथ का सारथि बनना श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया, उन महाभाग अर्जुन के अतिरिक्त श्रेष्ठ भक्त पृथ्वी पर और कौन हो सकता है।’ किन्तु हस्तिनापुर में अर्जुन के भवन के द्वार पर पहुँचने पर पता लगा कि अर्जुन सो रहे हैं। पार्वतीजी को भक्त का दर्शन करने की जल्दी थी पर शंकरजी अर्जुन की निद्रा में विघ्न डालना नहीं चाहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तत्काल ही श्रीकृष्ण, उद्धवजी, रुक्मिणीजी और सत्यभामाजी के साथ पधारे और शंकर-पार्वतीजी को प्रणाम कर आने का कारण पूछा।
शंकरजी ने कहा–’आप भीतर जाकर अपने सखा को जगा दें, क्योंकि पार्वतीजी अर्जुन के दर्शन करना चाहती हैं।’ ‘जैसी आज्ञा’ कहकर श्रीकृष्ण अंदर चले गए। बहुत देर हो गयी पर अंदर से कोई संदेश नहीं आया तब शंकरजी ने ब्रह्माजी का स्मरण किया। ब्रह्माजी के आने पर शंकरजी ने उन्हें अर्जुन के कक्ष में भेजा। पर ब्रह्माजी के अंदर जाने पर भी बहुत देर तक कोई संदेश नहीं आया। शंकरजी ने नारदजी का स्मरण किया। शंकरजी की आज्ञा से नारदजी अंदर गए। किन्तु संदेश तो दूर, कक्ष से वीणा की झंकार सुनाई देने लगी। पार्वतीजी से रहा नहीं गया। वे बोलीं–’यहां तो जो आता है, वहीं का हो जाता है। पता नहीं वहां क्या हो रहा है? आइये, अब हम स्वयं चलते हैं।’ भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ अर्जुन के कक्ष में पहुँचे।
उधर श्रीकृष्ण जब अर्जुन के कक्ष में पहुँचे तब अर्जुन सो रहे थे और उनके सिरहाने बैठी सुभद्राजी उन्हें पंखा झल रही थीं। अपने भाई (श्रीकृष्ण) को आया देखकर वे खड़ी हो गईं और सत्यभामाजी पंखा झलने लगीं। उद्धवजी भी पंखा झलने लगे। रुक्मिणीजी अर्जुन के पैर दबाने लगीं। तभी उद्धवजी व सत्यभामाजी चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे। श्रीकृष्ण ने पूछा–’क्या बात है?’ तब उद्धवजी ने उत्तर दिया–’धन्य हैं ये कुन्तीनन्दन ! निद्रा में भी इनके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है।’ तभी रुक्मिणीजी बोलीं–’वह तो इनके चरणों से भी निकल रही है।’
अर्जुन के शरीर से निकलती अपने नाम की ध्वनि जब श्रीकृष्ण के कान में पड़ी तो प्रेमविह्वल होकर भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के चरण दबाने बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण के नवनीत से भी सुकुमार हाथों के स्पर्श से अर्जुन की निद्रा और भी प्रगाढ़ हो गयी।
उसी समय ब्रह्माजी ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य, कि भक्त सो रहा है और उसके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण’ की मधुर ध्वनि निकल रही है और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणीजी के साथ उसके चरण दबा रहे हैं, ब्रह्माजी भावविह्वल हो गए और अपने चारों मुखों से वेद की स्तुति करने लगे। इसे देखकर देवर्षि नारद भी वीणा बजाकर संकीर्तन करने लगे। भगवान शंकर व माता पार्वती भी इस अलौकिक दिव्य-प्रेम को देखकर प्रेम के अपार सिन्धु में निमग्न हो गए। शंकरजी का डमरू भी डिमडिम निनाद करने लगा और वे नृत्य करने लगे। पार्वतीजी भी स्वर मिलाकर हरिगुणगान करने लगीं।
इस तरह सच्चे भक्त के अलौकिक दिव्य-प्रेम ने भगवान को भी भावविह्वल कर दिया।
भगवान के नाम की महिमा (नाम संकीर्तन)
कलियुग में नाम संकीर्तन के अलावा जीव के उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है|
विष्णुधर्मोत्तर में लिखा है कि श्रीहरि के नाम-संकीर्तन में देश-काल का नियम लागू नहीं होता है। किसी भी प्रकार की अशुद्ध अवस्था में भी नाम-जप को करने का निषेध नहीं है। श्रीमद्भागवत महापुराणका तो यहां तक कहना है कि जप-तप एवं पूजा-पाठ की त्रुटियां अथवा कमियां श्रीहरिके नाम- संकीर्तन से ठीक और परिपूर्ण हो जाती हैं। हरि-नाम का संकीर्त्तन ऊंची आवाज में करना चाहिए |
जपतो हरिनामानिस्थानेशतगुणाधिक:।
आत्मानञ्चपुनात्युच्चैर्जपन्श्रोतृन्पुनातपच॥
अर्थात : हरि-नाम को जपने वाले की अपेक्षा उच्च स्वर से हरि-नाम का कीर्तन करने वाला अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि जपकर्ता केवल स्वयं को ही पवित्र करता है, जबकि नाम- कीर्तनकारी स्वयं के साथ-साथ सुनने वालों का भी उद्धार करता है।
गोविन्द माधव मुकुन्द हरे मुरारे,
शम्भो शिवेश शशिशेखर शूलपाणे।
दामोदराच्युत जनार्दन वासुदेव,
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति।।
स्कन्दपुराण में यमराज नाममहिमाके विषय में कहते हैं–’जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव–इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतो ! तुम दूर से ही त्याग देना।’
यदि जगत् का मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?
बृहन्नार्दीय पुराण में आता है–
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा||
कलियुग में केवल हरिनाम, हरिनाम और हरिनाम से ही उद्धार हो सकता है| हरिनाम के अलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है! नहीं है! नहीं है!
कृष्ण तथा कृष्ण नाम अभिन्न हैं: कलियुग में तो स्वयं कृष्ण ही हरिनाम के रूप में अवतार लेते हैं| केवल हरिनाम से ही सारे जगत का उद्धार संभव है–
कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार |
नाम हइते सर्व जगत निस्तार|| – चै॰ च॰ १.१७.२२
पद्मपुराण में कहा गया है–
नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:|
पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोसभिन्नत्वं नाम नामिनो:||
हरिनाम उस चिंतामणि के समान है जो समस्त कामनाओं को पूर्ण सकता है| हरिनाम स्वयं रसस्वरूप कृष्ण ही हैं तथा चिन्मयत्त्व दिव्यता के आगार हैं |
हरिनाम पूर्ण हैं, शुद्ध हैं, नित्यमुक्त हैं|हरि तथा हरिनाम में कोई अंतर नहीं है| जो कृष्ण हैं– वही कृष्ण नाम है| जो कृष्ण नाम है– वही कृष्ण हैं|
यजुर्वेद के कलि संतारण उपनिषद् में आता है–
द्वापर युग के अंत में जब देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी से कलियुग में कलि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय पूछा, तब सृष्टिकर्ता ने कहा- आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण से मनुष्य कलियुग के दोषों को नष्ट कर सकता है।
इति षोडषकं नाम्नाम् कलि कल्मष नाशनं |
नात: परतरोपाय: सर्व वेदेषु दृश्यते ||
अर्थात : सोलह नामों वाले महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में क्लेश का नाश करने में सक्षम है| इस मन्त्र को छोड़ कर कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय चारों वेदों में कहीं भी नहीं है |
भगवन्नाम
भगवान का नाम उन परमात्मा का वाचक है जो अखिल ब्रह्माण्ड के नायक, परिचालक, उत्पादक और संहारक हैं। ‘भगवान’ शब्द समस्त ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य का संकेत करता है। अत: भगवान में अनन्त ब्रह्माण्डों के अनन्त जीवों का ज्ञान, उनके अनन्तानन्त कर्मों का ज्ञान, अनन्तानन्त कर्मों के फलों का ज्ञान और उन कर्मफलों को देने की सामर्थ्य है। वे भगवान एक ही हैं; किन्तु उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, प्रजापति, इन्द्र, वरुण, अग्नि, राम, कृष्ण, गोविन्द, वासुदेव, नारायण आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। नाम-संकीर्तन उस परमपिता के प्रति अभिवादन है, उसके अमित उपकारों की स्वीकारोक्ति है और उसके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन है। यह दीनता का प्रदर्शन है, गरीब की गुहार है और शरणागतभाव की अभिव्यक्ति है। यह समय का सदुपयोग है जिसमें भक्त स्वयं को समर्पण कर अपने अहंकार को नकारता है। भगवन्नाम शब्द में विलक्षण शक्ति है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह भगवन्नाम उच्चारण करने पर तीक्ष्ण तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ वह सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य भगवत्कृपा का भाजन बनता है और उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
भगवान के नामोच्चारण की महिमा
भगवान के नाम की विलक्षण महिमा है। इस भगवन्नाम से जल में डूबता हुआ गजराज समस्त शोक से छूट गया, द्रौपदी का वस्त्र अनन्त हो गया, नरसीमेहता के सम्पूर्ण कार्य बिना किसी उद्योग के सिद्ध हो गए, नाम के स्पर्श से सेतुबंधन के समय पत्थर भी तैर गए, मीरा के लिए विष भी अमृत समान हो गया, अवढरदानी शिवजी भी नाम के प्रताप से भयानक विषपान कर गए और नीलकण्ठ बन गए और संसार को भस्मीभूत होने से बचा लिया, व्याध भी ‘राम’ का उल्टा ‘मरा’ जपकर वाल्मीकि बन गए, भक्त प्रह्लाद भी हिरण्यकशिपु द्वारा दी गई समस्त विपत्तियों से छूट गए और धधकती हुई ज्वाला भी उन्हें भस्म नहीं कर सकी, बालक ध्रुव को अविचल पदवी प्राप्त हुई, नामजप के प्रभाव से ही हनुमानजी ने श्रीराम को अपना ऋणी बना लिया, अंतकाल में पुत्र का नाम नारायण लेने से अजामिल को भगवत्-पद की प्राप्ति हुई, नाम के प्रभाव से ही असंख्य साधकों को चमत्कारमयी सिद्धियां प्राप्त हुईं–ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो भगवान के नाम की महिमा को दर्शाते हैं।
नामोच्चार संसार के रोगों के निवारण की महान औषधि है। जैसे जलती हुई अग्नि को शान्त करने में जल सर्वोपरि साधन है, घोर अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य ही समर्थ है, वैसे दम्भ, कपट, मद, मत्सर आदि अनन्त दोषों को नष्ट करने के लिए श्रीभगवन्नाम ही सर्वसमर्थ है। बारम्बार नामोच्चारण करने से जिह्वा पवित्र हो जाती है। मन को अत्यन्त प्रसन्नता होती है। समस्त इन्द्रियों को सच्चिदानंदमय परम सुख प्राप्त होता है। समस्त शोक-संताप नष्ट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार–’भगवान का नाम प्रेम से, बिना प्रेम से, किसी संकेत के रूप में, हंसी-मजाक करते हुए, किसी डांट-फटकार लगाने में अथवा अपमान के रूप में भी ग्रहण करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।’
रामचरितमानस में कहा गया है–’भाव कुभाव अनख आलसहुँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहुँ।।’ भगवान का नाम लेकर जो जम्हाई भी लेता है उसके समस्त पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। यथा–’राम राम कहि जै जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।’
भगवन्नाम से तो बड़े-बड़े अमंगल ही क्या, भाग्य में लिखे हुए अनिष्टकारी योग भी मिट जाते हैं। तीर्थ में वास, लक्ष-लक्ष गोदान अथवा कोटि जन्म के सुकृत–कुछ भी भगवन्नाम के तुल्य नहीं है। नाम की सामर्थ्य असीम है, अचिन्तनीय है।
भक्त नामदेव का कहना है कि–’सोने के पर्वत, हाथी और घोड़े का दान तथा करोड़ों गायों का दान नाम के समान नहीं। ऐसा नाम अपनी जीभ पर रखो, जिससे जरा और मृत्यु पुन: न हो।’
प्रश्न यह उठता है कि नाम में इतनी शक्ति आयी कहां से?
भगवान मनुष्यों पर अनुग्रह करने के लिए युग-युग में अवतार लेते हैं। अपने परिकरों के साथ आते हैं और कार्य हो जाने पर अपने गणों के साथ नित्यधाम को लौट जाते हैं। दु:खी जीवों के लिए वे छोड़ जाते हैं अपना अभय और अमृतप्रद नाम-चिन्तामणि। केवल यही नहीं, नाम के भीतर वे अपनी भारी शक्ति का आधान कर जाते हैं। नाम की शक्ति तो थी ही, प्रभु की शक्ति को पाकर नाम नामी (भगवान) की अपेक्षा महान बन जाता है। श्रीरामचन्द्रजी ने एक पाषाणमयी अहल्या का उद्धार किया था पर नाम युग-युग में शत-शत अहल्याओं का उद्धार करता है। अब इतनी अहल्या हैं कहां? तो इसका उत्तर है–’हल्या’ का अर्थ है कृषियोग्य; अहल्या का अर्थ है कृषि के अयोग्य अर्थात् पाषाण। सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य का हृदय पाषाण होता जा रहा है। भगवान तो प्रकट हैं नहीं जो उनका उद्धार करें। परन्तु उनका नाम तो है ही। भगवान तो उद्धार करके चले गए, नाम इस समय महान उद्धारलीला करके (अनेकों पाषाणहृदयों को द्रवित करके) शत-शत जीवों का उद्धार कर रहा है।
भगवान श्रीकृष्ण के नाम की महिमा से सम्बन्धित कुछ सुन्दर प्रसंग
प्राचीन कथाओं पर विश्वास करना यद्यपि कठिन होता है परन्तु भक्ति हृदय से (श्रद्धा और विश्वास से) की जाती है, तर्क से नहीं। प्रस्तुत हैं भगवन्नाम की महिमा से सम्बन्धित कुछ प्रसंग–
एक बार भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा–’देव ! आज किसी भक्त श्रेष्ठ का दर्शन कराने की कृपा करें।’ भगवान शंकर तत्काल उठ खड़े हुए और कहा–’जीवन के वही क्षण सार्थक हैं जो भगवान के भक्तों के सांनिध्य में व्यतीत हों।’ भगवान शंकर पार्वतीजी को वृषभ पर बैठाकर चल दिए। पार्वतीजी ने पूछा–’हम कहां चल रहे हैं?’ शंकरजी ने कहा–’हस्तिनापुर चलेंगे। जिनके रथ का सारथि बनना श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया, उन महाभाग अर्जुन के अतिरिक्त श्रेष्ठ भक्त पृथ्वी पर और कौन हो सकता है।’ किन्तु हस्तिनापुर में अर्जुन के भवन के द्वार पर पहुँचने पर पता लगा कि अर्जुन सो रहे हैं। पार्वतीजी को भक्त का दर्शन करने की जल्दी थी पर शंकरजी अर्जुन की निद्रा में विघ्न डालना नहीं चाहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तत्काल ही श्रीकृष्ण, उद्धवजी, रुक्मिणीजी और सत्यभामाजी के साथ पधारे और शंकर-पार्वतीजी को प्रणाम कर आने का कारण पूछा।
शंकरजी ने कहा–’आप भीतर जाकर अपने सखा को जगा दें, क्योंकि पार्वतीजी अर्जुन के दर्शन करना चाहती हैं।’ ‘जैसी आज्ञा’ कहकर श्रीकृष्ण अंदर चले गए। बहुत देर हो गयी पर अंदर से कोई संदेश नहीं आया तब शंकरजी ने ब्रह्माजी का स्मरण किया। ब्रह्माजी के आने पर शंकरजी ने उन्हें अर्जुन के कक्ष में भेजा। पर ब्रह्माजी के अंदर जाने पर भी बहुत देर तक कोई संदेश नहीं आया। शंकरजी ने नारदजी का स्मरण किया। शंकरजी की आज्ञा से नारदजी अंदर गए। किन्तु संदेश तो दूर, कक्ष से वीणा की झंकार सुनाई देने लगी। पार्वतीजी से रहा नहीं गया। वे बोलीं–’यहां तो जो आता है, वहीं का हो जाता है। पता नहीं वहां क्या हो रहा है? आइये, अब हम स्वयं चलते हैं।’ भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ अर्जुन के कक्ष में पहुँचे।
उधर श्रीकृष्ण जब अर्जुन के कक्ष में पहुँचे तब अर्जुन सो रहे थे और उनके सिरहाने बैठी सुभद्राजी उन्हें पंखा झल रही थीं। अपने भाई (श्रीकृष्ण) को आया देखकर वे खड़ी हो गईं और सत्यभामाजी पंखा झलने लगीं। उद्धवजी भी पंखा झलने लगे। रुक्मिणीजी अर्जुन के पैर दबाने लगीं। तभी उद्धवजी व सत्यभामाजी चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे। श्रीकृष्ण ने पूछा–’क्या बात है?’ तब उद्धवजी ने उत्तर दिया–’धन्य हैं ये कुन्तीनन्दन ! निद्रा में भी इनके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है।’ तभी रुक्मिणीजी बोलीं–’वह तो इनके चरणों से भी निकल रही है।’
अर्जुन के शरीर से निकलती अपने नाम की ध्वनि जब श्रीकृष्ण के कान में पड़ी तो प्रेमविह्वल होकर भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के चरण दबाने बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण के नवनीत से भी सुकुमार हाथों के स्पर्श से अर्जुन की निद्रा और भी प्रगाढ़ हो गयी।
उसी समय ब्रह्माजी ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य, कि भक्त सो रहा है और उसके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण’ की मधुर ध्वनि निकल रही है और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणीजी के साथ उसके चरण दबा रहे हैं, ब्रह्माजी भावविह्वल हो गए और अपने चारों मुखों से वेद की स्तुति करने लगे। इसे देखकर देवर्षि नारद भी वीणा बजाकर संकीर्तन करने लगे। भगवान शंकर व माता पार्वती भी इस अलौकिक दिव्य-प्रेम को देखकर प्रेम के अपार सिन्धु में निमग्न हो गए। शंकरजी का डमरू भी डिमडिम निनाद करने लगा और वे नृत्य करने लगे। पार्वतीजी भी स्वर मिलाकर हरिगुणगान करने लगीं।
इस तरह सच्चे भक्त के अलौकिक दिव्य-प्रेम ने भगवान को भी भावविह्वल कर दिया।
जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से कृष्ण नाम का उच्चारण होता है वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं। नाम और कृष्ण अभिन्न हैं।
कौरवों की सभा में जब द्रौपदी निरावरण हुई तब द्रौपदी ने बारम्बार ‘गोविन्द’ और ‘कृष्ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्तिकाल में अभय देने वाले भगवान श्रीकृष्ण का मन-ही-मन चिन्तन किया। वह बोली–
गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय।
कौरवै: परिभूतां मां किं न जानासि केशव।।
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन।।
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द कुरुमध्येऽवसीदतीम्।।
अर्थात्–’ हे गोविन्द ! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण ! हे गोपियों के प्राणबल्लभ ! हे केशव ! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, इस बात को क्या आप नहीं जानते? हे नाथ ! हे लक्ष्मीनाथ ! हे व्रजनाथ ! हे संकट-नाशन जनार्दन ! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ; मेरा उद्धार कीजिए ! हे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगिन् ! विश्वात्मन् ! विश्वभावन ! गोविन्द ! कौरवों के बीच कष्ट में पड़ी हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजिए।’
द्रौपदी की करुण प्रार्थना सुनकर कृपालु श्रीकृष्ण गद्गद् हो गए तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित होकर पैदल ही दौड़ चले। धर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने वहां पधारकर अव्यक्तरूप से द्रौपदी की साड़ी में प्रवेश किया और भांति-भांति की सुन्दर साड़ी से द्रौपदी को ढक दिया। इस तरह वस्त्र के रूप में भगवान वहां तुरंत आ पहुँचे।
भगवान के नाम की महिमा दर्शाने वाली एक और कथा जो कि बताती है कि भगवान्नाम के फलस्वरूप ही श्रीराधाजी का प्राकट्य हुआ–
ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड के छठे अध्याय में कात्यायनीदेवी द्वारा श्रीबृषभानु को वर देने की कथा है–
बृषभानु संतानहीन होने के कारण बड़ा दु:खी जीवन बिता रहे थे। तब उनकी पत्नी ने उनसे मां कात्यायनी देवी की आराधना करने के लिए कहा। श्रीबृषभानुजी के कठोर तपस्या करने पर वाग्देवी (सरस्वतीजी) ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें आदेश दिया–
हरिनाम विना वत्स वर्णशुद्धिर्न जायते।
‘वत्स ! हरिनाम के बिना व्रण-शुद्धि नहीं होगी। अतएव राजन् ! हरिनाम का कीर्तन ही कल्याणकारी है। तुम पवित्र हरिनामों को ही क्रम से ग्रहण करो।’
उन्हीं के निर्देश से क्रतुमुनि के द्वारा बृषभानु को हरिनाम प्राप्त हुआ। वह नाम इस प्रकार था–
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीबृषभानुजी की तपस्या और इस नाम-जप से प्रसन्न होकर कात्यायनी देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं और उन्होंने श्रीबृषभानुजी से वर मांगने के लिए कहा। यद्यपि श्रीबृषभानुजी ने संतान-प्राप्ति की कामना से साधना आरम्भ की थी तथापि वे कात्यायनी देवी से बोले–’आपके दर्शन से ही मेरे सारे अभीष्ट पूर्ण हो गए।’ पर कात्यायनी देवी ने उनके पूर्ण अभीष्ट और कामना की पूर्ति के लिए उनको एक ज्योतिर्मय डिम्ब दिया। उसी से श्रीराधा का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार ‘नाम’ के फलस्वरूप श्रीबृषभानुजी ने संतान प्राप्त की।
पावन ब्रजभूमि में आज भी चारों और ढोलक, मंजीरों की गूंज पर नाम-संकीर्तन की स्वरलहरी सुनाई देती है। इसी स्वरलहरी के सांनिध्य और स्पर्श से वृन्दावन के वृक्षों और लताओं में आज भी ‘राधेकृष्ण’ की ध्वनि होती रहती है। भक्त शिरोमणि तुलसीदासजी ने अपने ब्रजप्रवास मे इसकी अनुभूति करते हुए कहा था–
बृन्दावन के वृक्ष को, मर्म न जाने कोय।
डार-डार अरु पात-पात में राधे राधे होय।।
भगवान श्रीकृष्ण का नाम चिन्तामणि, कल्पवृक्ष है–सब अभिलाषित फलों को देने वाला है। यह स्वयं श्रीकृष्ण है, पूर्णतम है, नित्य है, शुद्ध है, सनातन है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने अपने ग्रंथ ‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ में कहा है–
सांसारिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार के लाभ देने में श्रीकृष्ण का नाम स्वयं श्रीकृष्ण के तुल्य है। नाम, विग्रह, स्वरूप–तीनों एक हैं; एक ही सत्ता की इन तीन दशाओं में कोई भेद नहीं है। तीनों चिदानन्दरूप हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के कुछ प्रचलित नाम व उनका भावार्थ
भगवान के नाम अनन्त हैं, उनकी गणना कर पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। यहां कुछ थोड़े से प्रचलित नामों का अर्थ दिया जा रहा है–
कृष्ण—’कृष्ण’ शब्द की महाभारत में व्याख्या विलक्षण है। भगवान ने इस सम्बन्ध में स्वयं कहा है–’मैं काले लोहे की बड़ी कील बनकर पृथ्वी का कर्षण करता हूँ और मेरा वर्ण भी कृष्ण है–काला है, इसीलिए मैं ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता हूँ।
परमात्मा– सृष्टि का जो मूल कारण है; जिसके संसर्ग के बिना प्रकृति में सृजन-क्रिया सम्भव नहीं, उस सर्वव्यापक चित् तत्त्व को परमात्मा कहते हैं।
हरि– इस प्रसिद्ध नाम की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है–(१) जो यज्ञ में हवि के भाग को ग्रहण करते हैं वे प्रभु यज्ञभोक्ता होने से हरि कहलाए। (२) हरिन्मणि (नीलमणि) के समान उनका रूप अत्यन्त सुन्दर एवं रमणीय है।
अच्युत– जिनके स्वरूप, शक्ति, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, ज्ञानादि का कभी किसी काल में, किसी भी कारण से ह्रास नहीं होता, वे भगवान अच्युत कहे जाते हैं।
भगवान– ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य–भगवान इन छहों ऐश्वर्यों से पूर्णतया युक्त हैं।
माधव– मायापति अथवा लक्ष्मीपति होने से भगवान का नाम माधव है।
गोविन्द– भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज धारण कर इन्द्र के कोप से गोप-गोपी और गायों की रक्षा की। अभिमान-भंग होने पर इन्द्र और कामधेनु ने उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से विभूषित किया। गौओं ने अपने दूध से भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक कर उन्हें गोविन्द–गौओं का इन्द्र बनाया।
गोपाल – गायों का पालन करने वाले।
हृषीकेश – हृषीक कहते हैं इन्द्रियों को। जो मन सहित समस्त इन्द्रियों का स्वामी है, वह हृषीकेश है।
पृश्निगर्भ – पृश्निगर्भ के अर्थ हैं–अन्न, वेद, जल तथा अमृत। इनमें भगवान निवास करते हैं; अत: पृश्निगर्भ कहलाते हैं।
वासुदेव – जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से समस्त जगत् को आच्छादित करता है, उसी प्रकार इस विश्व को आच्छादित करने के कारण भगवान ‘वासुदेव’ कहलाते हैं।
केशव – केशव कहलाने के तीन कारण हैं–(१) अत्यन्त सुन्दर केशों से सम्पन्न होने से ‘केशव’ हैं। (२) केशी के वध के कारण ‘केशव’ हैं। (३) ब्रह्मा, विष्णु और शिव जिसके वश में रहकर अपने कार्यों का सम्पादन करते हैं, वह परमात्मा है केशव।
ईश्वर – उत्पत्ति, पालन, प्रलय में सब प्रकार से समर्थ होने के कारण ईश्वर कहलाते हैं।
पद्मनाभ – जिसकी नाभि में जगतकारणरूप पद्म स्थित है, वे पद्मनाभ कहे जाते हैं।
पद्मनेत्र – कमल के समान नेत्र वाले।
जनार्दन – जो प्रलयकाल में सबका नाश कर देते हैं अथवा जो अवतार लेकर दुष्टजनों का दमन करते हैं और भक्तलोग जिनकी प्रार्थना करते हैं; वे जनार्दन कहे जाते हैं।
नारायण – ’नार’ कहते हैं–जल को, ज्ञान को और नर को। ज्ञान के द्वारा जिन्हें प्राप्त किया जाय, वे नारायण हैं। और नर के सखा हैं और जल में घर बनाकर (क्षीरसागर में) रहते हैं।
मुकुन्द – मुक्तिदाता होने से भगवान को मुकुन्द कहा जाता है
प्रभु – सर्वसमर्थ।
मधसूदन – प्रलय-समुद्र में मधु नामक दैत्य को मारने वाले।
मुरारी – मुर दैत्य के नाशक।
दयानिधि – दया के समुद्र।
कालकाल – काल के भी महाकाल।
नवनीतहर – माखन का हरण करने वाले।
बालवृन्दी – गोप-बालकों के समुदाय को साथ रखने वाले।
मर्कवृन्दी – वानरों के झुंड के साथ खेलने वाले।
यशोदातर्जित – यशोदा माता की डांट सहने वाले।
दामोदर – मैया द्वारा रस्सी से कमर में बांधे जाने वाले।
भक्तवत्सल – भक्तों से प्यार करने वाले।
श्रीधर – वक्ष:स्थल में लक्ष्मी को धारण करने वाले।
प्रजापति – सम्पूर्ण जीवों के पालक।
गोपीकरावलम्बी – गोपियों के हाथ को पकड़कर नाचने वाले।
बलानुयायी – बलरामजी का अनुकरण करने वाले।
श्रीदामप्रिय – श्रीदामा के प्रिय सखा।
अप्रमेयात्मा – जिसकी कोई माप नहीं ऐसे स्वरूप से युक्त।
गोपात्मा – गोपस्वरूप।
हेममाली – सुवर्णमालाधारी।
आजानुबाहु – घुटने तक लंबी भुजा वाले।
कोटिकन्दर्पलावण्य – करोड़ों कामदेवों के समान सौन्दर्यशाली।
क्रूर – दुष्टों को दण्ड देने के लिए कठोर।
व्रजानन्दी – अपने शुभागमन से सम्पूर्ण व्रज का आनन्द बढ़ाने वाले।
व्रजेश्वर – व्रज के स्वामी।
जीवन की जटिलताओं में फंसे, हारे-थके, आत्म-विस्मृत सम्पूर्ण प्राणियों के लिए आज के जीवन में भगवन्नाम ही एकमात्र तप है, एकमात्र साधन है, एकमात्र धर्म है। इस मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं है। इसके प्रत्येक श्वास का बड़ा मोल है। अत: उसका पूरा सदुपयोग करना चाहिए–
साँस-साँस पर कृष्ण भज, वृथा साँस मत खोय।
ना जाने या साँस को आवन होय, न होय।।
हरिवंशपुराण का कथन है-
वेदेरामायणेचैवपुराणेभारतेतथा।
आदावन्तेचमध्येचहरि: सर्वत्र गीयते॥
वेद , रामायण, महाभारत और पुराणों में आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र श्री हरि का ही गुण- गान किया गया है।
Thursday, November 7, 2019
भगवान शालिग्राम का महत्व
जहां भगवान शालिग्राम की पूजा होती है, वहां विष्णुजी के साथ महालक्ष्मी भी निवास करती हैं।
इसे स्वयंभू माना जाता है यानी इनकी प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती। कोई भी व्यक्ति इन्हें घर या मंदिर में स्थापित करके पूजा कर सकता है।
शालिग्राम अलग-अलग रूपों में मिलते हैं। कुछ अंडाकार होते हैं तो कुछ में एक छेद होता है। इस पत्थर में शंख, चक्र, गदा या पद्म से निशान बने होते हैं।
भगवान् शालिग्राम की पूजा तुलसी के बिना पूरी नहीं होती है और तुलसी अर्पित करने पर वे तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं।
शालिग्राम और भगवती स्वरूपा तुलसी का विवाह करने से सारे अभाव, कलह, पाप, दुःख और रोग दूर हो जाते हैं।
तुलसी शालिग्राम विवाह करवाने से वही पुण्य फल प्राप्त होता है जो कन्यादान करने से मिलता है।
पूजा में शालिग्राम को स्नान कराकर चंदन लगाएं और तुलसी अर्पित करें। भोग लगाएं। यह उपाय तन, मन और धन सभी परेशानियां दूर कर सकता है।
विष्णु पुराण के अनुसार जिस घर में भगवान शालिग्राम हो, वह घर तीर्थ के समान होता है।
शालिग्राम नेपाल की गंडकी नदी के तल से प्राप्त होते हैं। शालिग्राम काले रंग के चिकने, अंडाकार पत्थर को कहते हैं।
पूजा में शालिग्राम पर चढ़ाया हुआ भक्त अपने ऊपर छिड़कता है तो उसे तीर्थों में स्नान के समान पुण्य फल मिलता है।
जो व्यक्ति शालिग्राम पर रोज जल चढ़ाता है, वह अक्षय पुण्य प्राप्त करता है।
शालिग्राम को अर्पित किया हुआ पंचामृत प्रसाद के रूप में सेवन करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है।
जिस घर में शालिग्राम की रोज पूजा होती है, वहां के सभी दोष और नकारात्मकता खत्म होती है।
Wednesday, October 30, 2019
शनि के बुरे प्रभाव से बचा सकते हैं ये उपाय
कुंडली में जब शनि अशुभ स्थिति में हो तो समझ लीजिए की बुरा वक्त शुरू हो गया है। शनि के प्रभाव में आए
शनि की बुरी दशा को खत्म करने के लिए आप चावल, तिल, उड़द, लोहा, तेल, काले वस्त्र, गुड, खाना, रोटी, तिल लड्डू, काला चना, लोहे का पात्र या उपकरण, आदि का दान कर सकते हैं. यह दान किसी गरीब या जरूरतमंद को ही करना लाभदायक होता है I
शनि दशा सही करने के लिए गरीबों की सेवा करें. गाय और कुत्ते को रोटी खिलाएं. चींटी को आंटा और शक्कर खिलने से भी लाभ मिलता है I
संध्या के समय हनुमान चालीसा का पाठ करें और पवनपुत्र को बेसन के लड्डू का भोग अवश्य लगाएं। इसके साथ ही काली हाय की सेवा करें और हर शनिवार को गौ माता के मस्तर पर रोली लगाकर सींगों में कलावा बांध कर धूप करें। इसके बाद परिक्रमा करके गाय को बूंदी के चार लड्डू खिलाएं I
भगवान हनुमान की पूजा करें। सूर्यास्त से पीपल के पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाएं। इस दिन बंदरों को केला, गुड़ और काले चने खिलाए। ऐसा करने से शनि देव प्रसन्न होंगे और जातक इसके बुरे प्रभाव से काफी हद तक बच सकेंगे।
शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या को दूर करने के लिए भोजन से पहले परोसी हुई थाली में से सभी चीजें थोड़ी-थोड़ी अलग निकाल दें और इसे कौओं को खिलाएं।
शनि के बुरे प्रभाव से बचने के लिए राई का तेल या तिल का तेल दान करें। शनि के खराब असर से जूझ रहे हैं तो सुरमें की जली लेकर जमीन में गाड़ दें। इतना ही नहीं रात को सोते समय दूघ न पिएं।
सप्तम स्थान में शनि हो तो मदिरा पान न करें अन्यथा आर्थिक और शारीरिक कमजोरी झेलनी पड़ेगी। इसके असर से बचने के लिए किसी जरूरतमंद को शनिवार वाले दिन काले तिल, तेल और काले कपड़े का दान करें।
जातकों का शनि फौरन न्याय करता है। ऐसे जातकों के सभी अच्छे-बुरे कर्मों का फैसला शनि फौरन करता है और उन्हें उचित फल देता है। अनिष्ट शनि ग्रह के प्रभाव से बचने के लिए कुछ खास उपाय कर इसके प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
शनि दशा सही करने के लिए गरीबों की सेवा करें. गाय और कुत्ते को रोटी खिलाएं. चींटी को आंटा और शक्कर खिलने से भी लाभ मिलता है I
संध्या के समय हनुमान चालीसा का पाठ करें और पवनपुत्र को बेसन के लड्डू का भोग अवश्य लगाएं। इसके साथ ही काली हाय की सेवा करें और हर शनिवार को गौ माता के मस्तर पर रोली लगाकर सींगों में कलावा बांध कर धूप करें। इसके बाद परिक्रमा करके गाय को बूंदी के चार लड्डू खिलाएं I
भगवान हनुमान की पूजा करें। सूर्यास्त से पीपल के पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाएं। इस दिन बंदरों को केला, गुड़ और काले चने खिलाए। ऐसा करने से शनि देव प्रसन्न होंगे और जातक इसके बुरे प्रभाव से काफी हद तक बच सकेंगे।
शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या को दूर करने के लिए भोजन से पहले परोसी हुई थाली में से सभी चीजें थोड़ी-थोड़ी अलग निकाल दें और इसे कौओं को खिलाएं।
शनि के बुरे प्रभाव से बचने के लिए राई का तेल या तिल का तेल दान करें। शनि के खराब असर से जूझ रहे हैं तो सुरमें की जली लेकर जमीन में गाड़ दें। इतना ही नहीं रात को सोते समय दूघ न पिएं।
सप्तम स्थान में शनि हो तो मदिरा पान न करें अन्यथा आर्थिक और शारीरिक कमजोरी झेलनी पड़ेगी। इसके असर से बचने के लिए किसी जरूरतमंद को शनिवार वाले दिन काले तिल, तेल और काले कपड़े का दान करें।
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